Wednesday 28 September 2016

धान की फसल में तना बेधक का प्रकोपः बचाव तथा प्रबन्धन के उपाय

धान की फसल में तना बेधक का प्रकोपः बचाव तथा प्रबन्धन के उपाय

डाॅ. जय पी. राय
असिस्टेण्ट प्रोफेसर (फसल सुरक्षा), 
कृषि विज्ञान संस्थान, 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी 
         
           धान की फसल में बालियाँ निकल रहीं हैं अथवा निकलने वाली हैं। इस अवस्था में फसल के सबसे विनाशक शत्रु तना बेधक का प्रकोप प्रारंभ हो गया है जो विभिन्न स्थानों पर फसल की अवस्था और मौसम की अनुकूलता के अनुसार विभिन्न स्तरों तक अपना प्रभाव दिखा रहा है। चूँकि फसल की यह अवस्था आर्थिक रूप से अत्यन्त संवेदी होती है और तना बेधक कीट कल्लों (टिलर्स) की संख्या में कमी होने और बालियों के सूख जाने अथवा उनके खाली रह जाने का प्रमुख कारण है अतः धान की खेती में इसका आर्थिक महत्त्व बहुत अधिक है। इसके कारण प्रतिवर्ष धान की उपज में भारी कमी होती है और किसानों को काफी नुकसान का सामना करना पड़ता है। तनाबेधक अथवा स्टेम बोरर की लगभग छह प्रमुख प्रजातियाँ धान की खेती के लिए महत्वपूर्ण नुकसान का कारण हैं। इस कीट का लार्वा ही फसल के लिए क्षतिकारक अवस्था होती है। कीट के आक्रमण के परिणामस्वरूप तने के भीतर का भाग खोखला होकर मर जाता है जिससे पौधे का संवहन तन्त्र बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाता है और ऐसे पौधों पर आने वाली बालियाँ सफेद अथवा पीली दिखाई देतीं हैं तथा वे खोखली अथवा मृत होतीं हैं। प्रभावित पौधे की बाली में दाने नहीं भरते अथवा पूरी बाली ही सूख जाती है। किसान की भाषा में इसे कहें तो पौधे के बीच का सीका (गोभ) खींचते ही वह निकलकर बाहर आ जाता है।
          कीट की पहचान कुछ सामान्य तरीकों से की जाती है जो किसान अपने स्तर से ही कर सकते हैं और इनके लिए किसी वैज्ञानिक प्रेक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। कीट के आक्रमण के प्रारम्भ में पौधों का निरीक्षण करने पर उनकी पत्तियों के किनारों पर तना बेधक कीट के भूरे रंग के अण्ड समूह दिखाई देते हैं जो कीट के संभावित प्रकोप की पुष्टि करते हैं। इन अण्डों के फूटते ही कीट के लार्वी पौधे के तने को भेदकर उसके अन्दर घुस जाते हैं तथा तने के मध्य भाग को अन्दर ही अन्दर खाना प्रारम्भ कर देते हैं। इसके परिणामस्वरूप तने के बीच का भाग अथवा केन्द्रीय गोभ सूख जाता है जिसे ऊपर से खींचने पर वह आसानी से बाहर आ जाता है। इस गोभ का सावधानी से निरीक्षण करने पर उसका निचला भाग कटा अथवा विवर्णित (भूरा) तथा सूखा दिखाई देता है। इस प्रकार के लक्षण को मृत गोभ के नाम से जाना जाता है। ऐसे पौधों में तने को बीच से फाड़कर देखने पर उसके केन्द्रीय भाग में कीट का लार्वा स्पष्ट दिखाई देता है जो कीट के आक्रमण की पुष्टि कर देता है।
          कीट के अण्डे क्रीमी सफेद रंग के होते हैं। वे चपटे, अण्डाकार, शल्क-सदृश होते हैं तथा समूह में दिए जाते हैं। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, ये अण्डे कीट की मादा द्वारा सामान्यतः पत्तियों के शीर्ष वाले किनारों पर दिए जाते हैं। कीट का अण्ड समूह नन्हें रोमों से ढका होता है जो उन्हें बाहरी क्षतिकारी कारकों से सुरक्षा प्रदान करता है। कीट के लार्वी पीले रंग के होते हैं तथा इनका सिर भूरे रंग का होता है। कीट के प्यूपा सफेद कोकून के रूप में प्रभावित तनों के अन्दर पाए जाते हैं।
          कीट के आक्रमण के लिए अनुकूल परिस्थितियों में संवेदी प्रजाति के साथ-साथ फसल में आवश्यकता से अधिक नत्रजन का प्रयोग, मृदा में सिलिका तत्त्व की कमी, शुष्क (निरन्तर वर्षा नहीं) तथा ठण्डा मौसम, उच्च वातावरणीय आर्द्रता तथा लगातार एक ही खेत में धान की खेती और पूर्व की फसल के अवशेषों को भली प्रकार नष्ट न किया जाना है।
कीट के प्रबन्धन के लिए निम्नलिखित उपायों के समन्वयन द्वारा सामूहिक प्रयास करने से अपेक्षित सफलता प्राप्त की जा सकती हैः

1. अण्ड परजीवी ट्राइकोग्रामा जैपोनिकम का मोचन
2. नीम की गिरी के सत (5 प्रतिशत) का छिड़काव
3. रोपाई के पूर्व धान की पत्तियों के सिरों को काट देने से कीट की मादा अण्डे नहीं दे पाती है, किन्तु जीवाणु           झुलसा रोग की तीव्रता वाले क्षेत्रों में इस उपाय का प्रयोग न करें।
4. अण्ड समूहों को खेत में से इकट्ठा करके मार देना चाहिए।
5. कीट के रासायनिक प्रबन्धन के लिए प्रति हेक्टेयर इनमें से किसी एक रसायन का प्रयोग कर सकते हैंः 
  • एसीफेट 75 प्रतिशत 666 से 1000 मिली
  • अजाडिरेक्टिन 0.03 प्रतिशत 1000 मिली
  • कार्बोसल्फान 6 प्रतिशत दानेदार संरूप 16.7 किग्रा
  • कार्बोसल्फान 25 प्रतिशत ईसी संरूप 800-1000 मिली
  • कार्टेप हाइड्रोक्लोराइड 50 प्रतिशत एसपी 1 किग्रा
  • क्लोरेन्ट्रानिलिप्रोल 0.4 प्रतिशत दानेदार संरूप 10 किग्रा
  • क्लोरेन्ट्रानिलिप्रोल 18.5 प्रतिशत एससी 150 मिली
  • क्लोरपाइरीफाॅस 20 प्रतिशत ईसी संरूप 1.25 लीटर
  • फिप्रोनिल 5 प्रतिशत एससी 1000-1500 ग्राम
  • फ्लुबेण्डियामाइड 20 प्रतिशत डब्ल्यूजी 125 ग्राम
  • थायाक्लोप्रिड 21.7 प्रतिशत एससी 500 ग्राम
  • थायामेथोक्जाम 25 प्रतिशत डब्ल्यूजी 100 ग्राम
  • ट्रायजोफाॅस 40 प्रतिशत ईसी 625-1250 मिली


Monday 26 September 2016

उड़द के प्रमुख रोग और उनका प्रबन्धन

उड़द के प्रमुख रोग और उनका प्रबन्धन

डॉ. जय पी. राय[1], डॉ. आलोक कुमार सिंह[2], डॉ. एस.के. गोयल[3] एवं  डॉ. एस.एन. सिंह[4]


भारत की अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी होने के कारण अपने आहार में प्रोटीन पोषण के लिए दालों पर निर्भर है | यही कारण है कि भारत दलहनी फसलों का न केवल प्रमुख उत्पादक देश है बल्कि इन कृषि उत्पादों का सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है | विश्व के प्रमुख दाल उत्पादक देशों में भारत (२३.१ प्रतिशत), कनाडा (६.७ प्रतिशत), चीन (१२.०८ प्रतिशत), म्यांमार (७.५७ प्रतिशत) और ब्राज़ील (४.०३ प्रतिशत) हैं और ये देश मिलकर विश्व के कुल दाल उत्पादन का आधे से अधिक उत्पादन करते हैं (पावसकर, २०१५) | देश में उगाई जाने वाली प्रमुख दलहनी फसलों में चना, अरहर, मटर, मसूर, मूंग, उर्द तथा खेसारी हैं | दालें न केवल खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि कुपोषण के निवारण, गरीबी उन्मूलन, मानव स्वास्थ्य और कृषि में धारणीयता के लिहाज़ से भी इनका योगदान अतुलनीय है | इन सभी तथ्यों के मद्देनजर यदि दलहनी फसलों के उत्पादन पर दृष्टि डालें तो यह विडम्बना ही दिखाई पडती है कि पिछले ५० वर्षों (वर्ष १९६१ से २०११) के बीच जहाँ अन्य खाद्यान्न फसलों जैसे मक्का, गेहूं, धान, सोयाबीन आदि के उत्पादन में संचयी रूप से  होने वाली वृद्धि २०० से लेकर ८०० प्रतिशत तक है, वहीं दलहनी फसलों के उत्पादन में इस समयावधि में होने वाली वृद्धि बमुश्किल ५४ प्रतिशत ही रही है (खाद्य एवं कृषि संगठन, २०१४) | इन्हीं अब बातों को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (फ़ूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन) ने वर्ष २०१६ को अंतर्राष्ट्रीय दाल वर्ष (इंटरनेशनल यीअर ऑफ़ पल्सेज़-आइ.वाई.पी.) घोषित किया है जिसका टैगलाईन है- “पल्सेज़ ऐट द क्रॉसरोड्स ऑफ़ हेल्थ, न्यूट्रीशन एंड सस्टेनेबल डिवेलपमेंट” यानि- “स्वास्थ्य, पोषण और धारणीय विकास के दोराहे पर दालें” |
उड़द अथवा उर्द (Vigna mungo L.) खरीफ मौसम की एक महत्त्वपूर्ण दलहनी फसल है और देश के कुल दलहन उत्पादन में इसका योगदान १० प्रतिशत तक रहा है जो मानव पोषण में इसके महत्व को दर्शाता है | राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अनुसार देश के कुल दलहन उत्पादन में उड़द का क्षेत्रफल के आधार पर प्रतिनिधित्व १२.१ प्रतिशत तथा उत्पादन के आधार पर ८.८ प्रतिशत है  (राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, २०१६)| तदनुसार इसकी उत्पादकता ५१८ किग्रा प्रति हेक्टेयर है | उड़द की खेती मुख्यत: मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिल नाडु, राजस्थान और कर्नाटक में की जाती है | वर्ष २००९ से २०१४ के पांच वर्षों की अवधि के दौरान मध्य प्रदेश में उर्द का सर्वाधिक क्षेत्रफल (५,७२,५०० हेक्टेयर से २,३४,१०० टन उत्पादन) रहा जबकि उत्पादन और उत्पादकता के मामले में उत्तर प्रदेश (५,२७,४०० हेक्टेयर से ३,००,८०० टन उत्पादन) अव्वल था |  इस प्रकार मध्य प्रदेश कुल उर्द के क्षेत्रफल के २४.४ प्रतिशत भाग से कुल उर्द उत्पादन का १९.७ प्रतिशत ही दे सका, जबकि उत्तर प्रदेश कुल क्षेत्रफल के २२.५ प्रतिशत भाग से २५.३ प्रतिशत उत्पादन देने में कामयाब रहा | इससे इस प्रदेश में उर्द की उत्पादकता और इसके उत्पादन की सम्भावनाओं का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है |
उड़द को अकेले अथवा ज्वार, बाजरा, मक्का, कपास, अरंड तथा अरहर आदि के साथ अंतर्फसल के रूप में उगाया जाता है | चूँकि इसकी फसल अवधि अन्य दलहनी फसलों के मुकाबले काफी कम होती है, अत: यह कैच क्रॉपिंग, इंटर क्रॉपिंग तथा रिले क्रॉपिंग के लिए आदर्श फसल है |
उड़द की पोषण गुणवत्ता पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि इसमें प्रोटीन २४ प्रतिशत, वसा (न्यून-१.४ प्रतिशत), कार्बोहाइड्रेट ५९.६ प्रतिशत, कैल्शियम १५४ मिग्रा, फॉस्फोरस ३८५ मिग्रा, लौह अथवा आयरन ९.१ मिग्रा, बीटा कैरोटीन ३८ मिग्रा, थायमिन ०.४२ मिग्रा, रिबोफ्लेविन ०.३७ मिग्रा, और नियासिन २ मिग्रा प्रति १०० ग्राम पाया जाता है (गोपालन एवं साथी, १९७१)
दलहनी फसलों में प्रोटीन की अधिकता और नत्रजन की प्रचुरता के कारण इन पर रोगों और शत्रुकीटों  का प्रकोप विशेष रूप से होता है | इसके अलावा उर्द की खेती खरीफ के मौसम में की जाती है जिस समय वर्षा का मौसम होता है और वातावरण में नमी की अधिकता होती है | ऐसी परिस्थितियों में तापमान की उपयुक्तता इन वातावरणीय परिस्थितियों को कवक, जीवाणु, विषाणु और सूत्रकृमि जैसे रोगजनकों की वृद्धि और बहुगुणन के लिए अत्यंत ही बना देती है | हालांकि उर्द की फसल में अलग-अलग वर्ग के रोगजनकों के संक्रमण से अनेक रोगों का प्रकोप होता है, जिनके द्वारा होने वाली हानि की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है और यह समय तथा वातावरणीय परिस्थितियों के अनुसार वर्ष-दर-वर्ष बदलती रहती है |
प्रस्तुत अध्याय में उड़द के प्रमुख रोगों का संक्षिप्त विवरण एवं उनके प्रबंधन के उपायों पर चर्चा की गई है जिसका लाभ छात्रों, सुधी पाठकों और किसानों को मिल सकेगा, ऐसी हम आशा करते हैं |
१.     श्यामव्रण अथवा एन्थ्रैक्नोज़:
फसलों के कुछ रोग ऐसे होते हैं जो किसी भी परिस्थिति में फसल को एक तय सीमा तक नुकसान पहुंचाते ही हैं चाहे वातावरणीय परिस्थितियाँ कुछ भी हों | ऐसे ही रोगों में श्यामव्रण अथवा एन्थ्रेक्नोज़ है जो प्रथमदृष्टया बहुत अधिक हानिकारक नहीं दिखाई पड़ता है, किन्तु पूरे फसल की अवधि के दौरान इससे होने वाली हानि काफी महत्वपूर्ण होती है | इसीलिए इसे फसल का प्रछन्न शत्रु भी कहा जाता है जिसकी गम्भीरता आसानी से पकड़ में नहीं आती |  रोग के प्रकोप से पौधे के प्रकाश संश्लेषण हेतु उपलब्ध क्षेत्रफल में उल्लेखनीय रूप से कमी हो जाती है जिसका सीधा प्रभाव पौध-पोषण और उसकी उत्पादकता पर पड़ता है | इसके अलावा फलियों और बीजों के संक्रमण से बीजों की मात्रा और गुणवत्ता, दोनों में  भारी कमी हो जाती है | बीजों की अंकुरण क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है और उनके द्वारा नवीन क्षेत्रों में रोग का प्रवेश सुगमतापूर्वक हो जाता है | अनेक बार तनों का संक्रमण होने से शीर्षारम्भी क्षय अथवा उल्टा सूखा (dieback) के लक्षण दिखाई देते हैं |
“एन्थ्रेक्नोज़” शब्द को यूनानी (ग्रीक) भाषा से ग्रहण किया गया है और इसे प्रथम बार इस रोग के लिए स्क्रिब्नर (१९८८) के द्वारा प्रयोग किया गया | उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस शब्द को फ्रेंच भाषा में सम्मिलित किया गया | यूनानी भाषा में “एंथ्रेक्स” का मतलब “कोयला” और “नोज़ोस” का मतलब “रोग” होता है | इस प्रकार इस रोग का नामकरण इसके लक्षणों के आधार पर किया गया है | हिंदी में इसका अनुवाद “श्यामव्रण” होता है, जिसमे “श्याम” का अर्थ “काला” तथा “व्रण” का अर्थ “विक्षत अथवा घाव” होता है | कुल मिलाकर देखा जाय तो इस रोग में जो सबसे प्रमुख बात है वो है, रोग के लक्षणों में काले रंग के विक्षतों का निर्माण, जो इस रोग के नामकरण से स्पष्ट है | सम्मिलित रूप से एन्थ्रेक्नोज़ का अर्थ “नासूर अथवा जहरबाद वाला फोड़ा” होता है | ऐसा नाम सम्भवत: इसलिए दिया गया है कि इसके विक्षतों में प्रभावित कोशिकाएं मर जातीं हैं और उनका पुनर्निर्माण सम्भव नहीं होता है | रोग का प्रभाव जड़ों को छोड़कर पौधे के सभी भागों पर होता है और फलियों पर रोग के लक्षण दानों की गुणवत्ता ख़राब कर देते हैं |
भारत के अतिरिक्त यह रोग नाइजीरिया, थाईलैंड, फिलिपीन्स, अपर वोल्टा, ज़ाम्बिया, पाल्मिरा, कोलम्बिया समेत विश्व के अनेक देशों में, जहाँ उड़द अथवा मूंग उगाई जाती है, पाया जाता है | भारत में इसे सर्वप्रथम माजिद (१९५३) द्वारा असम से प्रतिवेदित किया गया था |  बाद में यह रोग देश के अन्य क्षेत्रों से भी प्रतिवेदित किया गया और सम्प्रति इसे सभी उड़द और मूंग उगाने वाले क्षेत्रों में जाना जाता है |
रोगजनक:
उड़द का एन्थ्रेक्नोज़ अथवा श्यामव्रण रोग कोलेटोट्राईकम कवकवंश की कुछ प्रजातियों द्वारा उत्पन्न किया जाता है, जिनमें से निम्नलिखित प्रजातियाँ प्रमुख हैं:
१.     कोलेटोट्राईकम ग्रेमिनिकोला
२.     कोलेटोट्राईकम ट्रंकेटम (ग्लोमरेला ट्रंकाटा)
३.     कोलेटोट्राईकम लिंडेम्युथियानम (ग्लोमरेला लिंडेम्युथियाना)
४.     कोलेटोट्राईकम डिमैशियम
५.     कोलेटोट्राईकम कैप्सिकी (वर्मिकुलेरिया कैप्सिकी)
इसके साथ ही भारत में हुए अनेक अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य स्थापित हुआ है कि अलग-अलग क्षेत्रों में कोलेटोट्राईकम की अलग-अलग प्रजातियों की प्रमुखता रहती है | सक्सेना (१९८४) के अनुसार उत्तर प्रदेश में उड़द की फसल पर कोलेटोट्राईकम ट्रंकेटम के संक्रमण की मात्रा ४ से २१ प्रतिशत तक पाई गई | कवक विज्ञान एवं पादप रोग विज्ञान की प्रारम्भिक अवस्था में एन्थैक्नोज़ के कारक कवकों को अनेक नाम दिए गए किन्तु अंतत: कोर्दा (१८३७) द्वारा दिए गए नाम कोलेटोट्राईकम को व्यापक स्वीकृति मिली और इसी वंश नाम के अंतर्गत प्रजातियों की पहचान की गई | इसके पूर्व कोलेटोट्राईकम की वर्गिकी उनके कोनिडियोबीजाणु के आकार और उनके एसरवुलाई में मौज़ूद सीटी के माप और आकारिकी के आधार पर तय की जाती थी | परपोषी के संक्रमण और उसको की गई क्षति की मात्रा और रोगजनक द्वारा उत्पन्न लक्षणों के आधार पर कोलेटोट्राईकम की सैकड़ों प्रजातियों का निर्धारण किया गया है | वर्ष १९५७ में वों आर्क्स ने कोलेटोट्राईकम की प्रजातियों को ११ मुख्य प्रजातियों तक सीमित कर दिया | बाद के वर्षों में इस रोगजनक कवकवंश की प्रजातियों को उनके बीजाणुओं की आकारिकी के आधार पर दो प्रमुख समूहों- १. सीधे और २. अर्धचन्द्राकार, के अंतर्गत ५१ प्रजातियों में वर्गीकृत किया गया |
अनुसन्धानकर्त्ताओं द्वारा इस कवक के अंतर्गत आने वाली प्रजातियों का निर्धारण करने के लिए कवक के सम्बद्ध परपोषी और उसकी आकारिकी को आधार बनाया गया और उन्हें कोलेटोट्राईकम, ग्लियोस्पोरियम और स्फैसिलोमा  कवकवंशों के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया | रजक (१९७१- जैसा कि गुप्ता एवं साथी, १९७१ द्वारा उद्धृत पृष्ठ ४५४) ने इस तथ्य को स्थापित किया कि कोलेटोट्राईकम और ग्लियोस्पोरियम की रोगजनक और मृतजीवी, दोनों प्रकार की प्रजातियों में सीटी की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति आपेक्षिक आर्द्रता पर निर्भर करती है | उन्होंने तीन मास्टर प्रजातियों को परपोषी की विशिष्टता के आधार पर दो कवकवंशों- कोलेटोट्राईकम डिमैशियम और कोलेटोट्राईकम फैल्केटम में रखे जाने का समर्थन किया | १९६० के उत्तरार्ध तथा १९७० के पूर्वार्ध में सट्टन (१९६८) तथा  सट्टन एवं पाठक (१९७३-जैसा कि गुप्ता एवं साथी, २००७ पृष्ठ ४५४ द्वारा उद्धृत) ने इस कवकवंश की प्रजातियों के निर्धारण के लिए कवक के अप्रेशोरिया के आकार और परजीवी प्रजाति द्वारा परपोषी की विशिष्टता को स्थिर मानदंड के रूप में मान्यता प्रदान की | टिफैरी तथा गिलमैन (१९५४) ने बताया कि अधिकतर दलहनी फसलों में होने वाला श्यामव्रण रोग कोलेटोट्राइकम लिंडेम्युथियानम और कोलेटोट्राईकम डिमैशियम के द्वारा होता है | बाद के वर्षों में कोलेटोट्राईकम समेत अनेक कवकवंशों के प्रजातियों के निर्धारण और उनकी पहचान के लिए जैव-तकनीकी समेत अनेक नवीन प्रौद्योगिकियों का सहारा लिया गया और प्रजातियों के मध्य कर्यिकीय और रचनात्मक विशिष्टता की सूक्ष्म पहचान सम्भव हो सकी |
कोलेटोट्राईकम कैप्सिकी और कोलेटोट्राईकम डिमैशियम फॉर्मा स्पेशियालिस ट्रंकेटम द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले रोग को “ब्राउन ब्लॉच” का नाम भी दिया जाता है | उड़द की फसल में श्यामव्रण उत्पन्न करने के लिए कोलेटोट्राईकम लिंडेम्युथियानम  सर्वाधिक व्याप्त रोगजनक कवक है | यह भारत समेत अनेक देशों में पाया जाता है | उड़द के अलावा यह सेम, लोबिया, चना, हायसिंथ बीन, और विंग्ड बीन को भी संक्रमित करके उनमें रोग करता है | कोलेटोट्राईकम डिमैशियम फॉर्मा स्पेशियालिस ट्रंकेटम का वितरण भारत समेत नाइजीरिया, थाईलैंड, अपर वोल्टा, और ज़ाम्बिया में भी है | उड़द के अलावा रोगजनक कवक की यह प्रजाति लोबिया, सोयाबीन और चने को भी संक्रमित करती है | कोलेटोट्राईकम कैप्सिकी  भी भारत, नाइजीरिया, थाईलैंड, अपर वोल्टा, और ज़ाम्बिया में पाई जाती है और उड़द के अलावा मूंग, लोबिया, अरहर तथा चने को संक्रमित करती है |
सामान्यत: सभी प्रजातियाँ पौधे के सभी अंगों पर समान रूप से वितरित नहीं होतीं और पौधे के अंगों के अनुसार उनके वितरण में भिन्नता देखी जाती है | निम्नलिखित सारणी में पौधे के अंगों के अनुसार प्रमुख रूप से सम्बद्ध अथवा संयुक्त प्रजाति का विवरण प्रस्तुत है (गुप्ता एवं साथी, २००७):
सारणी: पौधों के अंगों के अनुसार उड़द के रोगजनक कवकवंश कोलेटोट्राईकम की प्रजाति का वितरण
क्रम संख्या
पौध अंग
संयुक्त/सम्बद्ध रोगजनक कवकवंश कोलेटोट्राईकम की प्रजाति
१.      
पत्ती एवं बीज
कोलेटोट्राईकम ग्रेमिनिएरम, कोलेटोट्राईकम डिमैशियम, कोलेटोट्राईकम लिंडेम्युथियानम, कोलेटोट्राईकम ग्रेमिनीकोला, कोलेटोट्राईकम ट्रंकेटम
२.      
बीज
कोलेटोट्राईकम ट्रंकेटम
३.      
पत्ती
कोलेटोट्राईकम कैप्सिकी
४.      
पत्ती एवं फली
कोलेटोट्राईकम डिमैशियम, कोलेटोट्राईकम ग्रेमिनीकोला
५.      
पत्ती एवं बीज
कोलेटोट्राईकम डिमैशियम, कोलेटोट्राईकम लिंडेम्युथियानम
रोगजनक कवक के कवकतन्तु बाह्यत्वचा और अंतर्त्वचा के बीच के स्थान में वृद्धि करते हैं और इस प्रकार की वृद्धि के परिणामस्वरूप गद्दे जैसी संरचना बनाते हैं जिन पर रोगजनक कवक के अलैंगिक फलनकाय, जिनको एसरवुलस (बहु. एसरवुलाई) कहा जाता है, विकसित होते हैं | इन एसरवुलाई में कवक के बीजाणुधानीधर (कोनिडियोफोर) तथा अलैंगिक बीजाणु (कोनिडिया) विकसित होते हैं | एसरवुलाई के किनारों पर गहरे रंग की कांटेदार संरचनाएं, जिन्हें सीटा (बहु. सीटी) के नाम से जाना जाता है, उत्पन्न होते हैं |
कवक के अलैंगिक बीजाणु-कोनिडिया हल्के रंग के, हंसिए के आकार के (sickle-shaped) और एककोशिकीय होते हैं | इन बीजाणुओं के अंदर  केन्द्रीय भाग में अथवा पार्श्व में दो सुस्पष्ट तैलीय गोलक (oil globules) दृष्टिगोचर होते हैं | कवक के लैंगिक फलनकाय  पेरीथीसियम (बहु. पेरीथीसिया) नाम से जाने जाते हैं जो ओस्टियोलयुक्त होते हैं | ओस्टियोल लाक्षणिक रूप से इस फलनकाय का मुख होता है जिससे होकर एस्कोबीजाणु बाहर निकलते हैं | एस्कोबीजाणु एस्कस के अंदर प्रति एस्कस ८ की संख्या में बनते हैं और ये एक अथवा द्विकोशिकीय होते हैं | इनके अंदर भी दो तैलीय गोलक उपस्थित रहते हैं |
रोग के लक्षण:
रोगजनक  कवक पौधे के सभी वायवीय भागों पर आक्रमण करता है और बीजों के द्वारा भी इसका संक्रमण होता है | बीज-जनित  संक्रमण से होने वाले रोग में नवोद्भिद के बीजपत्रों और बीजपत्राधारों पर गहरे-भूरे रंग के आंख के आकार वाले लम्बवत धब्बे दिखाई देते हैं | अनुकूल परिस्थितियों में  बीजपत्राधारों के ऊपर बने धब्बे आकार में बढ़ जाते हैं और वे कोमल तने को तोड़ भी सकते हैं | पत्तियों के प्रभावित भागों की निचली सतह पर भी भूरे रंग के धब्बे प्रकट होते हैं जो मध्य शिरा और अन्य शिराओं को भी सम्मिलित कर सकते हैं | बाद में इसी प्रकार के धब्बे पत्तियों की उपरी सतह पर भी उत्पन्न हो जाते हैं | मध्य शिरा, अन्य शिराओं और पर्णवृन्तों  पर ये धब्बे लम्बवत और धंसे हुए होते हैं | इनका रंग गहरे भूरे से लेकर भूरा होता है और इनके बीच का भाग धंसा हुआ तथा प्रभावित ऊतकों की मृत्यु के कारण गहरे रंग का दिखाई देता है | फलियों पर रोग के विशिष्ट लक्षण प्रकट होते हैं | रोग के धब्बे धीरे-धीरे आकार में बढ़ते हुए तनों और शाखाओं को घेरना प्रारम्भ कर देते हैं | फलियों पर बनने वाले धब्बे जलसिक्त होते हैं और प्रारम्भिक रूप में इनका रंग चटख-लाल, पीले अथवा नारंगी रंग के किनारों समेत केंद्रीय भाग गहरे रंग का होता है | अनुकूल मौसम में ये धब्बे आकार में बढ़ते हुए भूरे रंग के हो जाते हैं | इन धब्बों पर रोगजनक कवक के बीजाणुओं का निर्माण होता है जिससे धब्बों का केन्द्रीय भाग गुलाबी रंग के गाढ़े, चिपचिपे पदार्थ जैसा दिखाई देता है | ऐसा नम मौसम में अधिक होता है और वातावरणीय आर्द्रता में वृद्धि इस प्रकार के लक्षण को निर्धारित करती है | अधिक संक्रमित फलियों से प्राप्त बीज आकार में सामान्य बीजों से छोटे तथा विवर्णित अथवा अपरंजित (असामान्य रंग के) हो सकते हैं | यह देखा गया है कि रोग के लक्षण रोगकारक कवक की प्रजाति के अनुसार आपस में विभिन्नता प्रदर्शित करते हैं |
कोलेटोट्राईकम लिंडेम्युथियानम द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले श्यामव्रण रोग के लक्षण इसके द्वारा संक्रमित नवोद्भिदों, तनों, पर्णवृन्तों, फलियों इत्यादि पर प्रकट होते हैं | संक्रमित बीजपत्रों और नवोद्भिदों के तनों पर भूरे रंग के धंसे हुए विक्षत दिखाई देते हैं जो आर्द्र मौसम में संख्या और आकार में तेज़ी से बढ़ते जाते हैं तथा प्राय: आक्रमण के साथ ही नवीन कोमल पौधा मृत्यु को प्राप्त हो जाता है | अगर पौधे की कुछ वृद्धि हो जाने के बाद आक्रमण होता है तो पौधा सूख जाता है |
कोलेटोट्राईकम कैप्सिकी एक अन्य प्रजाति है जिससे उत्पन्न होने वाले रोग के लक्षणों को वृहद रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है-पर्णधब्बे तथा ब्राउन ब्लॉच | यह रोगजनक कवक उड़द के अतिरिक्त मूंग को भी संक्रमित करता है जिस पर उत्पन्न किए जाने वाले लक्षण उड़द पर दिखाई देने वाले लक्षणों के समान ही होते हैं | पत्तियों पर छोटे, गोलाकार भूरे धब्बे रोग के प्राथमिक लक्षण हैं | ये धब्बे बाद में चलकर मौसम की अनुकूलता के साथ आकार और संख्या में बढ़ जाते हैं तथा धीरे-धीरे बड़े क्षेत्रफल को संक्रमण के अधीन कर लेते हैं | बाद में चलकर इन धब्बों में कवक की दिवाचर वृद्धि के कारण संकेन्द्रीय वलय बन जाते हैं, जिससे धब्बे लक्ष्य-पट्टिका जैसे प्रभाव दिखाते हैं | मृत ऊतकों के पत्तियों से अलग हो जाने पर शॉट होल्स बन जाना भी इस रोगजनक के लक्षणों में शुमार है |
कोलेटोट्राईकम डिमैशियम फॉर्मा स्पेशियालिस ट्रंकेटम (ब्राउन ब्लॉच) द्वरा उत्पन्न रोग पत्तियों पर गोलाकार से लेकर अनियमित आकार वाले जलसिक्त धब्बों के रूप में प्रारंभ होता है जो तेज़ी से बढ़ते हुए संकरे तथा लाल रंग के किनारोंयुक्त कागज़ जैसे पीले रंग के हो जाते हैं| ये धब्बे या तो पूरी पत्ती पर बिखरे रहते हैं अथवा मध्य शिरा के इर्द-गिर्द केन्द्रित रहते हैं | अनुकूल वातावरणीय परिस्थितियों और सापेक्षिक आर्द्रता में वृद्धि के साथ-साथ धीरे-धीरे  ये धब्बे आकार और संख्या में बढ़ते जाते हैं और एक-दुसरे के साथ मिलकर बड़े धब्बों का निर्माण करते हैं | रोग बढने के साथ-साथ धब्बों का पीला भाग पत्तियों के बीच से निकल जाता है जिससे वहाँ खाली स्थान (शॉट होल) बन जाता है | यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि केवल मध्य का पीला भाग ही पत्ती से अलग होता है- किनारे की पतली लाल धारी जो स्वस्थ उतकों के सम्पर्क में रहती है, सुरक्षित रहती है | इस प्रकार लाक्षणिक रूप से पत्तियों पर बनने वाले शॉट होल भी इस रोग की पहचान हैं | रोगजनक कवक का बीज जनित निवेश द्रव्य  नवांकुरों अथवा नवोद्भिदों पर भी आक्रमण कर सकता है तथा उन्हें समयपूर्व मार सकता है | कोलेटोट्राईकम कैप्सिकी द्वारा उत्पन्न ब्राउन ब्लॉच प्रभवित पत्तियों पर छोटे, गोलाकार धब्बों के रूप में प्रकट होता है | ये धब्बे नाम के अनुसार भूरे रंग के होते हैं तथा इनका व्यास ३ से ५ मिमी होता है | इन धब्बों के मध्य में संकेन्द्रिक वलय दिखाई पड़ते हैं जिससे ये धब्बे लक्ष्य पट्टिका जैसे दृष्टिगोचर होते हैं | रोगग्रस्त ऊतक सामान्यतया कागज़ जैसा हो जाता है और पट्टी से टूटकर अलग हो जाता है जिससे पत्तियों पर शॉट होल बन जाते हैं | रोग के लक्षण प्रभावित पौधे की फलियों पर भी आते हैं और ये पत्तियों पर प्रकट होने वाले लक्षणों से भिन्न होते हैं | फलियों के ऊतक  पत्तियों के ऊतकों की अपेक्षा कड़े और रेशेदार होते हैं जिसके कारण इन पर बनने वाले धब्बे केवल गोलाकार और भूरे रंग के होते हैं | उनके मध्य का भाग कागज़ जैसा नहीं होता और वे आस-पास के ऊतकों से अलग नहीं होते |
रोग के द्वारा होने वाली हानि फसल में संक्रमण और रोग की मात्रा के समानुपाती होती है | रोग के आक्रमण के समय पौधे की अवस्था, निवेशद्रव्य और संक्रमण की मात्रा, फसल की प्रजाति तथा रोगजनक के विकास और बहुगुणन में  वातावरणीय कारकों की अनुकूलता रोग द्वारा होने वाली हानि के निर्धारण हेतु प्रमुख विचारणीय बिंदु होते हैं | दीक्षा तथा त्रिपाठी (२००२) द्वारा इस रोग से होने वाली औसत हानि का आकलन २४ से ६७ प्रतिशत के मध्य किया गया है | पत्तियों की अपेक्षा फलियों का संक्रमण रोग की तीव्रता और उसके द्वारा होने वाली आर्थिक हानि को अधिक प्रभावित करता है | फलियों का संक्रमण बीजों को सीधे मार सकता है अथवा उन्हें गम्भीर रूप से संक्रमित कर सकता है जिससे बीजों की मात्रा एवं गुणवता, दोनों ही प्रतिकूल रूप से प्रभावित होतो है | बीजों की अंकुरण क्षमता समाप्त हो सकती है अथवा वे मर सकते हैं | प्रारंभिक अवस्था में फलियों के संक्रमण से सम्पूर्ण उपज के समाप्त होने की सम्भावना रहती है |
रोगचक्र:
टिफैनी (१९५१) ने दलहनी फसलों को संक्रमित करने वाली कोलेटोट्राईकम की प्रजातियों के रोग-चक्र का विस्तृत अध्ययन किया और उनके अनुसार कोलेटोट्राईकम की प्रजातियाँ सर्वांगी तथा स्थानिक, दोनों प्रकार का संक्रमण करतीं हैं | प्राथमिक निवेशद्रव्य बीजोढ़ होता है अथवा खरपतवार के रूप में उग रहे अन्य दलहनी परपोषियों के माध्यम से उपलब्ध कराया जाता है | संक्रमित पौध अवशेष भी शीतोष्ण क्षेत्रों में मिट्टी के अंदर दबे रहकर रोगजनक की उत्तरजीविता का साधन बनते हैं और प्राथमिक निवेशद्रव्य की उपलब्धता को सुनिश्चित करते हैं | इस कवक के परपोषी पौधों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिनमें दलहनी कुल के अनेक पौधे जो कैन्वालिया, फैजियोलस और विग्ना वंशों से सम्बन्ध रखते हैं, सम्मिलित हैं | कवक का द्वितीयक प्रसार इसके प्राथमिक संक्रमण से उत्पन्न अलैंगिक बीजाणुओं (कोनिडिया) द्वारा संपन्न होता है जो वायु के झोंकों से एक खेत से दूसरे खेत अथवा एक पौधे से दूसरे पौधों तक वितरित होते हैं |
कम तापमान वाला आर्द्र मौसम रोग की बढ़वार के लिए अनुकूल होता है | इसके लिए अनुकूलतम तापमान २६-३०º सेल्शियस तथा सापेक्षिक आर्द्रता सुबह के समय ९०-१०० प्रतिशत और दोपहर में ८०-९३ प्रतिशत तक होती है | यदि आसमान में बादल छाए रहें, हल्की बूंदाबांदी हो जाय और वायु की गति लगभग १३ किमी प्रति घंटा हो तो रोग का प्रसार और संक्रमण अधिकतम होता है | खुले मौसम और धूप में रोग के प्रसार की गति पर प्रभावी अंकुश लग जाता है |
इसके साथ ही साथ पौध पोषण के लिए दी जाने वाले उर्वरकों का भी प्रभाव रोग की तीव्रता और फसल की रोग के प्रति संवेदनशीलता पर पड़ता पाया गया है | फॉस्फोरस की अधिक मात्रा (१०० किग्रा/हे.) रोग की तीव्रता में वृद्धि करती है  किन्तु इससे उपज में भी वृद्धि देखी जाती है | फसल का घनत्व और उसकी अवस्था रोग द्वारा होने वाली हानि को प्रभावित करती है |
रोग का प्रबंधन:
किसी भी फसल में रोग प्रबंधन के लिए रोग-प्रतिरोधी प्रजातियों का चुनाव और उनकी खेती सर्वोत्तम विकल्प होता है | उड़द के श्यामव्रण रोग के प्रबंधन के लिए भी अनेक जर्मप्लाज्मों का परीक्षण किया गया और यह देखा गया कि उनमे से कुछ ही इस रोग के प्रति रोगरोधिता प्रदर्शित करतीं हैं | साथ ही, ध्यान देने वाली महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि इन प्रजातियों में रोग प्रतिरोधन क्षमता नितांत अस्थायी होती है | उदाहरण के लिए पूसा-१०९ तथा पूसा-११५ ने इस रोग के प्रति एक मौसम में उच्च स्तर का प्रतिरोध प्रदर्शित किया जबकि आगामी मौसमों में यह प्रतिरोध नहीं देखा जा सका | उड़द की मौजूदा अधिकतर वाणिज्यिक प्रजातियाँ इस रोग के प्रति संवेदी हैं और उमने प्रतिरोध नहीं होता है- अत: उस रोग के लिए यह एक सीमित विकल्प है | अग्रवाल (१९९३) ने उड़द के श्यामव्रण रोग के लिए प्रतिरोधी प्रविष्टियों का विवरण दिया है जो इस प्रकार है-
क्रम संख्या
परीक्षण रोगजनक
कुल प्रविष्टियाँ
प्रतिरोधी प्रविष्टियाँ
सन्दर्भ
१.                  
कोलेटोट्राईकम ट्रंकेटम
६०९
लाइन११२, बीआर१०, और ६ प्रविष्टियाँ माध्यम प्रतिरोधी थीं
राज कुमार एवं मुखोपाध्याय (१९८७)
२.                  
कोलेटोट्राईकम ट्रंकेटम
४८
पी२७, पी१०३, पी११५ और पी५३ समेत १३ लाइनें प्रतिरोधी पैन गईं
कौशल एवं सिंह (१९८८)
३.                  
कोलेटोट्राईकम ट्रंकेटम
-
बाराबंकी लोकल, यूएच-८०-९
अग्रवाल (१९८९)
४.                  
कोलेटोट्राईकम कैप्सिकी 
८२
टी६५, यूपीयू ७९-२-४, यूपीयू ८०-५-५, यूजी २०१, पीडीयू २,३, ८ और १०
सिंह एवं शुक्ल (१९८६)
डेज़ी एवं साथियों (२०११) ने भी उड़द के जर्मप्लाज्म के परीक्षण (स्क्रीनिंग) द्वारा उपलब्ध लाइनों में इस रोग के लिए प्रतिरोध का अध्ययन किया और पाया कि उड़द की जीनोटाइप आईसी ११६६८, आईसी५३०२०, आईसी६१०९२, आईपीयू९९-३७४, जेबी२३३, जेबीटी३२/८२, पीएलयू१०१६, एमएस/३१, पीएलयू१०२५, पीएलयू३६३, पीएलयू४९३, पीएलयू५५७, टीयू९५-१, यूसी/टीआरसी१४०१ और वीबी१७  श्यामव्रण रोग के लिए अत्यंत प्रतिरोधी  हैं |
कर्षण क्रियाओं द्वारा फसलों के रोगों का प्रबंधन एक बहुत पुरानी प्रक्रिया है किन्तु यह सदैव प्रासंगिक है | इस रोग के लिए भी स्वस्थ फसल से प्राप्त प्रमाणित बीजों का प्रयोग, फसल-चक्र, मिट्टी-पलट हल द्वारा गर्मी की गहरी जुताई, बुवाई के समय का निर्धारण, स्वच्छ खेती आदि महत्वपूर्ण कर्षण क्रियाएँ हैं जिनके अनुपालन के माध्यम से श्यामव्रण रोग को उड़द की फसल में अधिक हानि करने से रोका जा सकता है | श्यामव्रण के रोगजनक कवक हेतु अपरपोषी वाली फसलों की बुवाई करने से रोग की तीव्रता में क्रमशः कमी आती है | इसके अलावा बुवाई का समय भी इस रोग के प्रबंधन में एक महत्वपूर्ण बिंदु है | ऐसा पाये गया है कि २० जुलाई के बाद बोई गई फसल में जुलाई के प्रथम सप्ताह में बोई गई फसल के मुकाबले रोग का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है | फसलों के संक्रमित अवशेषों का सुरक्षित निस्तारण करने से रोगजनक के प्राथमिक निवेशद्रव्य की मात्रा में कमी होती है और इसके फलस्वरूप संक्रमण में भी कमी आती है और रोग के प्रसार में लगने वाला समय बढ़ जाता है | स्वस्थ बीजों का प्रयोग और खरपतवारों का नियंत्रण भी इस रोग के प्रबंधन की प्राथमिक शर्तें हैं |
जैसा की पहले इंगित किया जा चुका है कि यह रोग बीजोढ़ भी है, इसके प्रबंधन के लिए बीज-उपचार सम्भवत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है | यदि उष्ण जल उपचार की सुविधा हो तो बीजों को १५ मिनट के लिए ५८°सेल्शियस वाले गर्म पानी में रखकर उपचारित किया जाता है | इस प्रक्रिया में पानी का तापमान और उपचार की अवधि अत्यंत महत्वपूर्ण है | इसमें थोड़ी सी भी असावधानी बीजों की अंकुरण क्षमता को बुरी तरह प्रभावित कर सकती है | रसायनों द्वारा बीज उपचार के लिए थिरम, कैप्टान, कार्बेन्डाजिम, आदि उपलब्ध कवकनाशी हैं, जिनका प्रयोग करके बीजों को संक्रमण से मुक्त किया जा सकता है और स्वस्थ फसल प्राप्त की जा सकती है |
खड़ी फसल में छिड़काव के लिए मैन्कोजेब, जिनेब अथवा जिरम जैसे कवकनाशियों का प्रयोग ०.२५ प्रतिशत का घोल बनाकर किया जा सकता है | छिड़काव को फसल की अवस्था के अनुसार रोग के विकास और प्रसार हेतु मौसम अनुकूल रहने तक १५ दिनों के अन्तराल पर दोहराया जा सकता है | इसमें यह बात ध्यान में रखें कि दुबारा छिड़काव के लिए पूर्व में छिड़के गए कवकनाशी न प्रयोग करें |
२.    चूर्णिल आसिता:
चूर्णिल आसिता अथवा श्वेत आसिता भी एक कवकजनित रोग है और इसके द्वारा भी प्रतिवर्ष उड़द की फसल को होने वाली हानि काफी महत्वपूर्ण है | यह रोग उड़द और मूंग, दोनों ही फसलों के लिए एक बड़ी चुनौती है और इसके प्रबंधन में किसी भी प्रकार की असावधानी फसल को भारी क्षति पहुंचा सकती है | इस रोग को भारत के साथ-साथ आस्ट्रेलिया, फिलिपिन्स,श्री लंका, ताइवान, कोलम्बिया, इथियोपिया, इक्वेडोर, थाईलैंड, कोरिया तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भी पाया जाता है | पिछले कुछ वर्षों में यह रोग रबी मौसम में बोई जाने वाली उड़द और मूंग की फसल के लिए एक बड़े खतरे का रूप धारण करता जा रहा है | भारत में उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिल नाडु, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में उड़द की फसल पर इस रोग का आक्रमण होता है | रोग की  गम्भीर अवस्था में इससे होने वाले नुकसान का आकलन २१ प्रतिशत तक किया गया है, जो उपज के लिहाज़ से काफी महत्वपूर्ण है | एवीआरडीसी (१९८२) द्वारा किए गए आकलन के अनुसार कृषक प्रक्षेत्र पर इस रोग से होने वाला नुकसान लगभग ९ से ५० प्रतिशत तक होता है |
रोग के लक्षण:
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, इस रोग के प्राथमिक लक्षण चूर्णिल वृद्धि के रूप में दिखाई देते हैं | यह वृद्धि पौधे के सभी वायवीय भागों पर पाई जा सकती है, क्योंकि रोग का संक्रमण पौधे के सभी वायवीय भागों पर होता है | रोग के प्रारंभिक लक्षण मंद और थोड़ा धुंधले रंग के धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं | कालांतर में ये धब्बे बढ़ा जाते हैं और इनके ऊपर रोह्जंक कवक की वृद्धि चूर्णिल रूप में दिखाई देती है | ऐसा प्रतीत होता है जैसे पत्तियों अथवा टनों पर टैल्कम पाउडर अथवा खड़िया का चूर्ण भुरक दिया गया है | संक्रमण के ये क्षेत्र मौसम अनुकूल होने के साथ-साथ बढ़ते जाते हैं तथा एक दूसरे से मिलकर बड़े धब्बों का निर्माण करते हैं | इन सफेद, चूर्णिल धब्बों में रोगजनक कवक के कवकतंतु, कवकजाल और उसकी प्रजनन संरचनाएं जैसे बीजाणु आदि मौजूद होते हैं | ये धब्बे पत्तियों के अलावा तनों, पुष्पवृन्तों और फलियों पर पाए जाते हैं | तीव्र संक्रमण की दशा में निष्पत्रण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है  और पत्तियां पौधे से अलग हो जातीं हैं | रोग के कारण पौधों में समयपूर्व परिपक्वता आ जाती है जिससे उपज का भारी नुकसान होता है |
रोगजनक:
चूर्णिल आसिता रोग का कारक रोगजनक एक कवक है जिसे एरिसाईफी पोलिगोनी का नाम दिया गया है | यह कवक अधिकतर पौधे के संक्रमित भागों के ऊपर वृद्धि करता है और केवल चूषकांग तथा सम्बन्धित भाग ही पोषक तत्त्व प्राप्त करने के लिए पौधे के कोशिकाओं के अन्दर जाते हैं | यह एक अविकल्पी परजीवी है तथा परपोषी के अभाव में इसका सक्रिय जीवन काल अत्यंत सीमित होता है | इसके बीजाणुधर परपोषी की सतह से लगभग समकोण पर लम्बवत वृद्धि करता है | बीजाणुधर के शीर्ष पर रोगजनक कवक के बीजाणु श्रृंखलाबद्ध रूप में पाए जाते हैं | यह रोगजनक कवक अपने मुख्य परपोषी-उड़द के अलावा अनेक अन्य परपोषियों   पर भी जीवित रहता है | इनमे मूंग, बाकला, राजमा, लोबिया और मटरी आदि सम्मिलित हैं | बीजाणुधरों के ऊपर श्रंखलाबद्ध बीजाणु हवा के झोंकों से उड़कर आस-पास के स्वस्थ पौधों तक पहुंचते है और संक्रमण करते हैं | चूँकि रोगजनक कवक के परपोषियों की संख्या विस्तृत होती है अत: उड़द की फसल के कट जाने के बाद यह अन्य परपोषियों के ऊपर अलैंगिक बीजाणुओं (कोनिडिया) के रूप में जीवित रहता है | इसके अलावा पौधों के संक्रमित अंगों के भीतरी ऊतकों में रोगजनक कवक के सुप्त बीजाणु, जो लैंगिक प्रजनन के फलस्वरूप बनते हैं और जिन्हें क्लिस्टोथीशियम (बहु. क्लिस्टोथीशिया)  के नाम से जाना जाता है, उड़द की फसल के अभाव में इसकी उत्तरजीविता के मुख्य साधन हैं | इनके अन्दर कवक के एसाई और एस्कोबीजाणु पाए जाते हैं जो उपयुक्त वातावरणीय परिस्थितियों में विभिन्न माध्यमों से परपोषी पौधों तक पहुंचकर प्राथमिक संक्रमण करते हैं | प्राथमिक संक्रमण के परिणामस्वरूप बनी बीजाणुधनियों में अलैंगिक रूप से उत्पन्न कोनिडियोबीजाणुओं के द्वारा परपोषी पौधों का द्वितीयक संक्रमण होता है |
रोग के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों में गर्म, शुष्क मौसम, २२ से २६ °सेल्शियस तापमान, और सापेक्ष आर्द्रता ८० से ८८ प्रतिशत के बीच होनी चाहिए | हालाँकि, एशिया महाद्वीप में यह रोग अधिकतर ठन्डे और शुष्क मौसम में अधिक विकास करता है | दक्षिण भारत में देखा गया है कि अगस्त के द्वितीय से तृतीय सप्ताह में बोई गई फसल पर रोग का आक्रमण इसके बाद बोई गई फसल के मुकाबले अधिक होता है | इसके अलावा यह रोग कम उम्र के पौधों पर सीमित प्रभाव ही प्रदर्शित करता है | ऐसा पाया गया है कि यह रोग ६० से ८० दिनों के पौधों पर ४० दिनों की आयु वाले पौधों की अपेक्षा अधिक संक्रमण करता है | रोग का प्रसार और इसके द्वारा होने वाली हानि घनी बोई गई फसल में तेज़ी से और अधिक होता है | देर से बोई गई फसल में वातावरणीय परिस्थितियाँ रोग के विकास के लिए अनुकूल नहीं रह जातीं, जिससे अधिक हानि नहीं हो पाती | सापेक्ष आर्द्रता तथा वायु की गति में वृद्धि और हल्की  वर्षा रोग के प्रसार में योगदान करते हैं |
रोग का प्रबंधन:
उड़द में चूर्णिल आसिता रोग के  प्रबंधन की पहली शर्त बुवाई के समय का समंजन है | देर से बुवाई इस रोग द्वारा होने वाली हानि की सीमित कर देती है | स्वच्छ कृषि तथा रोगी पौधों और खरपतवारों का उन्मूलन रोग के प्रसार की गति को कम करने में सहायक होते हैं | बुवाई के समय कतार से कतार तथा पौधों से पौधों के बीच की दूरी का समंजन भी इस प्रकार करना चाहिए कि फसल घनी नहीं होने पाए  (मोघे तथा उतिकर, १९८१; सिवप्रकाशम एवं साथी, १९८१) | प्रतिरोधी प्रजातियों की बुवाई रोग प्रबंधन का अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु है तथा इसका पालन करके रोग से होने वाली हानि में उल्लेखनीय कमी की जा सकती है | भारतीय दलहन अनुसन्धान संस्थान, कल्यानपुर, कानपुर द्वारा विकसित प्रजाति आईपीयू ७०-३ चूर्णिल आसिता रोग के लिए प्रतिरोधी पाई गई है |
रोग के रासायनिक प्रबंधन के लिए कवकनाशियों का प्रयोग संस्तुत मात्रा में करना चाहिए | चूर्णिल असिता रोग के लिए सल्फर अथवा गंधक सबसे उपयुक्त कवकनाशी है |  सल्फर के विभिन्न संरुपों की अलग-अलग मात्रा रोग प्रबंधन के लिए आवश्यक होती है | सल्फर के ८०% डब्ल्यूपी की ३.१३ किग्रा, ८०% डब्ल्यूजी की १.८७५ किग्रा, ४०%डब्ल्यूपी की ५.६५ किग्रा, ५२%एससी की २ लीटर मात्रा, ८५% डीपी की १५-२० किग्रा मात्रा की आवशकता पडती है | सल्फर के अलावा भी इस रोग के लिए अनेक प्रभावी कवकनाशी बाज़ार में उपलब्ध हैं जिनमें केराथेन, कोसान, कैलिक्सिन, कार्बेन्डाजिम, कॉपर ऑक्सीक्लोराइड, बेलेटान, बेनोमिल, अजोक्सीस्ट्रोबिन, डाइनोकैप, फेनारिमोल, फ्लुसिलाजोल आदि हैं | नवीन कवकनाशी अणु इस रोग के रोकथाम में अधिक कारगर सिद्ध हुए हैं किन्तु उड़द जैसी फसल के लिए इनकी आर्थिक उत्पादकता को भी संज्ञान में लेना चाहिए | ये अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं और इनकी बहुत कम मात्रा में आवश्यकता पडती है लेकिन इनकी कीमत काफी अधिक होती है | इसलिए इनके चयन में आर्थिक विवेक का प्रयोग अत्यंत आवश्यक है | प्रति हेक्टेयर अजोक्सीस्ट्रोबिन के २३% एससी संरूप की ५०० मिली मात्रा, बेनोमिल के ५०%डब्ल्यूपी संरूप की २०० ग्राम मात्रा, कार्बेन्डाजिम ५०% डब्ल्यूपी ३०० ग्राम, डाइनोकैप ४८%ईसी २२५ मिली, फेनारिमोल १२%ईसी ४० मिली (१०० लीटर पानी में), फ्लुसिलाजोल ४०% ईसी १००-१५० मिली में से किसी एक का उपयुक्त संरूप बनाकर रोग प्रबंधन के लिए प्रयोग किया जा सकता है |
३.    सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बा :
यह भी उड़द का एक कवकन्ज्नित रोग है जो मूंग के साथ-साथ उड़द को भी उल्लेखनीय रूप से प्रभावित करता है | इसके कारण गर्म और नम जलवायवीय क्षेत्रों में बहुत अधिक नुकसान होता है | प्रभावित पौधों में पत्तियाँ झड़ जातीं हैं जिसके कारण पौधे में प्रकाश संश्लेषण के लिए कुल उपलब्ध क्षेत्रफल में उल्लेखनीय रूप से कमी आ जाती है और पौधा कुपोषण का शिकार हो जाता है | ऐसी स्थिति में पौधे से प्राप्त होने वाला उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होता है तथा उपज में कमी किसान के लिए आर्थिक रूप से हानिकारक सिद्ध होती है |
मूंग, लोबिया और मोठ पर इस रोग को भारत में सर्वप्रथम १९१८ में बटलर द्वारा प्रतिवेदित किया गया था| उड़द पर इस रोग को बाद के वर्षों में (सोल्हें तथा स्टीवेंस, १९३१;  कुलिक, १९८४) प्रतिवेदित किया गया | यह रोग विश्व के सभी उष्ण कटिबंधीय भौगोलिक क्षेत्रों में, जहाँ पर उड़द और मूंग की खेती की जाती है, पाया जाता है | इनमे अमेरिका, बांग्लादेश, चीन, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपीन्स, सोमालिया, श्री लंका, थाईलैंड , वेनेज़ुएला, और दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देश सम्मिलित हैं | भारत में यह रोग मूंग और उड़द उकी खेती करने वाले सभी प्रदेशों, मुख्यत:  पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और असम में पाया जाता है |
रोग के लक्षण एवं हानि:
सर्कोस्पोरा की प्रजातियाँ पौधों पर मुख्यत: पर्ण धब्बा उत्पन्न करने के लिए जानीं जातीं हैं | इस रोगजनक के आक्रमण के फलस्वरूप उत्पन्न धब्बे आकार में अपेक्षाकृत छोटे, गोलाकार तथा संख्या में अधिक होते हैं | इन धब्बों के किनारे लाल-भूरे रंग तथा केंद्रीय भाग भूरे से लेकर धूसर रंग तक का हो सकता है | आस-पास के कई छोटे धब्बे आपस में मिलकर बड़े धब्बों का निर्माण करते हैं जो कालांतर में पत्ती की पूरी सतह को आच्छादित कर लेते हैं तथा पत्ती मृत होकर पौधे से विलग हो जाती है | पत्तियों के झड़ जाने से पर्ण क्षेत्रफल सूचकांक (लीफ एरिया इंडेक्स) कम हो जाता है (सिंह, १९८४)  जिससे पौधे के पोषण और उसके उपज पर सीधा प्रभाव पड़ता है | तीव्र संक्रमण में पत्तियों के अलावा ये धब्बे पर्णवृन्तों, तनों और फलियों पर भी पाए जा सकते हैं | सर्कोस्पोरा की विभिन्न प्रजातियों द्वारा उत्पन्न लक्षण आपस में थोड़े भिन्न भी हो सकते हैं | सर्कोस्पोरा क्रुएन्टा द्वारा उत्पन्न धब्बे (५-७ मिमी) सर्कोस्पोरा केनेसेन्स के धब्बों (१-३ मिमी) से आकार में बड़े होते हैं | हालाँकि धब्बों का आकार   रोगजनक और फसल की प्रजाति के अनुसार निर्धारित होता है | प्रभावित पौधों से प्राप्त दाने आकार में छोटे, भार में कम, सिंकुड़े तथा कम अंकुरण क्षमता और ओज वाले होते हैं (रायन एवं साथी, १९६१) | चूँकि रोगकारक कवक के विकास के लिए नमी एक प्रमुख आवश्यकता है अत: नम तथा उष्ण क्षेत्रों में रोग का प्रकोप और इसके द्वारा होने वाली हानि बहुत अधिक होती है | साथ ही, वर्षा के मौसम में ली जाने वाली (खरीफ) फसल इस रोग के कारण अधिक प्रभावित होती है | इंडोनेशिया, फिलिपीन्स, थाईलैंड, और कोलम्बिया में यह रोग मूंग के लिए खतरा घोषित किया जा चुका है | पिछले शताब्दी के मध्य पूर्वार्ध के दशकों में (१९३४, १९४१) उत्तर प्रदेश में इससे महामारी के रूप में भी देखा जा चुका है | इसके अलावा यह रोग हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और पंजाब तथा हरियाणा में प्रतिवर्ष भारी हानि करता है | सिंह एवं साथियों (१९८७) ने इस रोग द्वारा होने वाली हानि को लगभग ५० प्रतिशत तक आँका है |
रोगजनक:
उड़द की फसल पर आक्रमण करने वाले सर्कोस्पोरा की चार प्रजातियों को चिन्हित किया गया है | ये चार प्रजातियाँ इस प्रकार हैं:
१.     स्यूडोसर्कोस्पोरा क्रुएन्टा
२.     सर्कोस्पोरा केनेसेन्स
३.     सर्कोस्पोरा डोलिची
४.     सर्कोस्पोरा कराकली
रोगजनक कवक संक्रमित फसल अवशेषों, संक्रमित फलियों से प्राप्त बीजों तथा संक्रमण के लिए विभिन्न अवस्थाओं में वर्ष भर उपलब्ध दुसरे परपोषियों के माध्यम से उत्तरजीवी रहता है | बीजोढ़ निवेशद्रव्य द्वारा संक्रमण से बीजपत्रों पर रोग के लक्षण प्रकट होते है | इन संक्रमणों से उत्पन्न द्वितीयक निवेशद्रव्य नवीन पत्तियों और पौधे के कोमल अंगों को संक्रमित करने के लिए उपलब्ध कराया जाता है | गर्म और नम मौसम में धब्बों पर कवक के बीजाणु भारी संख्या में उत्पन्न होते हैं | ये बीजाणु वायु के झोंकों अथवा वर्षा की बूंदों के आघातों द्वारा संक्रमण के लिए स्वस्थ पत्तियों, तनों अथवा पौधे के नवीन स्थानों तक प्रसारित किए जाते हैं | कोनिडियोबीजाणुओं का प्रसार ओस के सूखने के बाद तथा वर्षा के समय सबसे अधिक होता है | उड़द की फसल में रोग का सर्वाधिक प्रकोप पुष्पवाथा पर देखा जाता है |
रोग का प्रबंधन:
जैसा कि पहले  इंगित किया जा चुका है, रोग की उत्तरजीविता के माध्यमों में संक्रमित बीजों का प्रमुख योगदान है | बीजोढ़ निवेशद्रव्य का महत्त्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि यह पौधे के जीवन प्रक्रिया के प्रारंभ में ही संक्रमण के लिए उपलब्ध रहता है और पौधे की प्रारंभिक अवस्थाओं में होने वाले संक्रमण की दशा में रोग द्वारा होने वाली हानि उल्लेखनीय रूप से अधिक होती है | इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि पौधे की प्रारंभिक अवस्था में संक्रमण होने से द्वितीयक निवेशद्रव्य के प्रसार और उसके द्वारा संक्रमण (द्वितीयक संक्रमण) के चक्र अपेक्षाकृत अधिक होते हैं | अत: स्वस्थ और प्रमाणित बीजों का प्रयोग रोग प्रबंधन की पहली शर्त है | इससे रोगजनक के प्राथमिक निवेशद्रव्य में कमी होती है तथा प्रारंभिक अवस्थाओं  में  पौधों का संक्रमण नहीं हो पाता है  जिस्क्ले फलस्वरूप होने वाली हानि की मात्रा सीमित होती है | रोगी पौधों के संक्रमित अवशेषों को खेत से अविलम्ब बाहर करके सुरक्षित रूप से उन्हें नष्ट कर देने से भी रोग के प्रसार पर अंकुश लगता है और रोग की तीव्रता में कमी होती है | खेत की साफ-सफाई तथा उचित खरपतवार प्रबंधन प्रक्रियाओं से रोगजनक की उत्तरजीविता के लिए उपलब्ध परपोषियों की संख्या में कमी की जा सकती है |
चूँकि रोग का प्रकोप और उसकी तीव्रता वातावरणीय कारकों द्वारा निर्धारित होती है अत: बुवाई के समय में थोड़ा हेर-फेर करके फसल की संवेदी अवस्था का रोग की तीव्रता से बचाव किया जा सकता है | इसके लिए अलग-अलग कृषि-जलवायवीय क्षेत्रों के लिए उड़द की बुवाई के लिए अलग-अलग समय संस्तुत किए गए हैं | सूद और सिंह (१९८४) के द्वारा किए गये अनुसन्धान में यह पाया गया कि उड़द की देर से बुवाई इस रोग की तीव्रता और इसके आक्रमण से होने वाली हानि में कमी करने में सहायक है | दुबे एवं सिंह (२००६) ने पाया कि १ जुलाई को बोई गई उड़द की फसल में १५ जुलाई को बोई गई फसल की अपेक्षा सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बा रोग से होने वाली उपज की हानि अधिक होती है |
रोग प्रतिरोधी प्रजातियों की बुआई रोग प्रबंधन की दिशा में सर्वाधिक कारगर उपाय सिद्ध होता है | सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बा रोग के प्रति अनेक परीक्षित लाइनों में प्रतिरोध पाया गया है | इनका प्रयोग रोगरोधी प्रजातियों के विकास में किया जा सकता है | इन लाइनों में एलएम ११३, एलएम १६८, एलएम १७०, जेएम १७१, तथा एलएम ४०४ सर्कोस्पोरा क्रुएंटा के लिए प्रतिरोधी पाई गईं हैं  (संधू एवं साथी, १९८५) | सर्कोस्पोरा केनेसेंस के लिए प्रतिरोधी लाइनों में ईसी २७०८७-२, ईसी २७२६१-३  तथा एमएल १ पाई गईं (ठाकुर एवं साथी, १९८०) |
रोग के रासायनिक प्रबंधन के लिए बीज उपचार अपरिहार्य है | विभिन्न कवकनाशियों द्वारा बीज के उपचार से विभिन्न स्तरों तक रोग प्रबंधन में सहायता मिली है | दुबे एवं सिंह (२०१०) द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार कार्बेन्डाजिम+थिरम (१:१ अनुपात में) २.५ ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से बीज उपचार तथा बुआई के ३५ दिनों बाद कार्बेन्डाजिम के ०.०५ प्रतिशत जलीय घोल का छिड़काव करने से न केवल रोग की तीव्रता में कमी आई, बल्कि नवोद्भिद संख्या, मूल एवं प्ररोह की लम्बाई, प्रति पौधा फलियों की संख्या, पौध जैवभार, बीजों का परीक्षण भार, और दानों की उपज में भी उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज़ की गई | कई अन्य अनुसन्धानकर्त्ताओं द्वारा बुआई के ३० और ४५ दिनों बाद कार्बेन्डाजिम के जलीय घोल (०.०५%) का छिड़काव रोग प्रबंधन की दिशा में विशेष लाभकारी पाया गया है | छिड़काव के बाद कार्बेन्डाजिम पत्तियों में लगभग १५ दिनों तक बना रहता है  और इस समयावधि में सर्कोस्पोरा केनेसेंस के बीजाणुओं का अंकुरण रोक देता है | टैलबट (१९७०) ने पाया कि कर्बेन्दजिम सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बा रोग को भले ही घटा देता है लेकिन यह जीवाणुजनित पर्ण धब्बे के प्रकोप को बढ़ावा देता है | कपाड़िया एवं ध्रुज (१९९९) ने बताया कि डाइफेन्कोनाज़ोल (०.०१२५%) का छिड़काव रोग प्रबंधन में सभी कवकनाशियों के मुकाबले अच्छा पाया गया | साथ ही, उन्होंने पाया कि थायोफैनेट मिथाइल, कार्बेन्डाजिम, मैन्कोजेब, प्रोपिकोनाजोल, हेक्साकोनाजोल, तथा बिटरटेनोल का प्रभाव रोग के प्रबंधन की दिशा में अपेक्षाकृत कम मिला | सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बा रोग के रासायनिक प्रबंधन के लिए अन्य उपयुक्त कवकनाशियों में कॉपर ऑक्सीक्लोराइड, बेनोमिल तथा क्लोरोथैलोनिल भी सम्मिलित हैं | राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन केन्द्र के अनुसार इस रोग के प्रबंधन के लिए कार्बेन्डाजिम, कॉपर ऑक्सीक्लोराइड तथा मैंकोज़ेब के अलावा सल्फर ८० डब्ल्यूपी की ४ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से भी लाभ मिलता है | जैविक अभिकर्मकों में बैसिलस सब्टिलिस को २० ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से भी रोग प्रबंधन में लाभ मिलता है |
पौध निष्कर्षों का प्रयोग भी रोग के प्रबंधन में लाभकारी सिद्ध हुआ है | इस सम्बन्ध में चौलाई (स्प्रिंग अमरंथ-अमरेंथस स्पाइनोसस) तथा सफेद बबूल (ल्युकैना ल्यूकोसिफैला) का जलीय निष्कर्ष भी छिड़कने से रोग प्रबंधन में लाभ पाया गया है  किन्तु रसायन बेनोमिल  के मुकाबले इसका प्रभाव अपेक्षाकृत कम था (मैरून एवं साथी, १९८४) |
४.    मैक्रोफोमिना अंगमारी:
यह रोग भी उड़द के अलावा मूंग की फसल पर देश के सभी भागों में पाया जाता है | इसके द्वारा मूल विगलन, कॉलर सड़न, पौध विगलन, तना  सड़न, पर्ण अंगमारी, फली और बीज संक्रमण होता है | मूंग में इस रोग के बीज संक्रमण से होने वाली हानि औसतन १०.८ प्रतिशत आंकी गई है  (कौशिक एवं साथी, १९८१) |
रोग के लक्षण:
इस रोग की सामान्यतया एक से अधिक अवस्थाएं होतीं हैं  जिनके लक्षण भिन्न-भिन्न होते हैं | इन अवस्थाओं में चारकोल विगलन, भस्मी तना अंगमारी, तना कैंकर, मूल विगलन,पर्ण अंगमारी तथा फली अंगमारी इत्यादि  मुख्या हैं | फसल की पौध वाली अवस्था में इस रोग के कारण पौध विगलन (चारकोल विगलन) के अंतर्गत दो प्रकार के लक्षण आते हैं-पूर्वोद्भिद तथा पश्चोद्भिद | पूर्वोद्भिद अवस्था में अंगमारी रोग बीजों के अंकुरों को भू-सतह से बाहर निकलने के पूर्व मिट्टी के अंदर ही मार देता है | ऐसा तब होता है जब रोगजनक का निवेशद्रव्य बीजों अथवा मिट्टी में उपस्थित होता है | ऐसी घटनाओं को किसान आमतौर पर बीजों की गुणवत्ता तथा उनकी अंकुरण क्षमता में कमी मानकर संतोष कर लेता है | उसे पता ही नहीं चलने पाता कि वास्तव में हुआ क्या है और रोगजनक कवक प्रच्छन्न रूप से मृदा में स्थापित होता रहता है | पश्चोद्भिद अवस्था में रोग भूमि की सतह से बाहर निकली पौध को उसके ग्रीवा स्थल (कॉलर प्रदेश) पर आक्रमण करके मार देता है |
रोग के प्रमुख लक्षणों में पौध विगलन (चारकोल विगलन) के अलावा भस्मी तना अंगमारी (ऐशी स्टेम ब्लाइट), जिसमे विकसित पौधे की ग्रीवा (कॉलर प्रदेश) पर  धूसर-काले, धंसे हुए धब्बे प्रकट होते हैं | ये विक्षत मौसम की अनुकूलता के साथ-साथ बड़े हो जाते हैं तथा तने पर लम्बवत वृद्धि करते हैं | इन धब्बों के किनारे भूरे होते हैं तथा केंद्रीय भाग धूसर रंग का होता है | आकार में बड़े धब्बे तने पर भू-सतह के ऊपर तथा नीचे, दोनों और वृद्धि करते हुए तने को चारों और से घेर लेते हैं तथा तने के बड़े भाग में विगलन हो जाने के कारण तना भस्मी धूसर रंग का दिखाई देने लगता है और पौधे की मृत्यु हो जाती है |  तना कैंकर वाली अवस्था प्रमुखत: आन्ध्र प्रदेश में धान-परती वाले कृषि परिस्थितियों में उड़द की फसल पर बुवाई के ३० दिनों बाद प्रकट होती है  (अब्बैया एवं सत्यनारायण, १९९०) | इस अवस्था में पौधे की तुरंत मृत्यु नहीं होती बल्कि उसमे फूल और फलियाँ आती रहतीं हैं | भूमि एक अंदर स्थित निवेशद्रव्य द्वारा संक्रमण के कारण मूल-विगलन वाली अवस्था प्रकट होती है | इसमें मुख्य जड़ों के साथ-साथ द्वितीयक जड़ें भी सड़ जाती हैं | जड़ों के सड़ जाने के कारण मिट्टी में पौधे की पकड़ ढीली हो जाती है और ऊपर खींचने पर वह आराम से मिट्टी से बाहर निकल आता है |
पर्ण धब्बा अथवा पर्ण अंगमारी रोग की प्रमुख अवस्थाओं तथा लक्षणों में शुमार किया जाता है | उड़द की फसल पर इसको भारत में सबसे पहले मध्य प्रदेश से प्रतिवेदित किया गया था (कुमार एवं साथी, १९६९) | यह लक्षण पर्णवृंत तथा पर्णफलक के मिलने के स्थान पर पर्ण शिराओं के लम्बवत भूरे रंग के विवर्णन के रूप में प्रकट होता है | अंतत: पत्ती विकृत होकर पौधे से अलग होकर गिर जाती है | बीजपत्रों तथा पत्तियों की ऊपरी सतह पर ०.५-१.० मिमी आकार के भूरे रंग के  गोलाकार धब्बे दिखाई देते हैं | इनका केंद्रीय भाग धूसर तथा किनारे भूरे रंग के होते हैं | पर्ण धब्बा अथवा पर्ण अंगमारी लक्षण सामान्यतया ४-६ सप्ताह की आयु वाले पौधों पर प्रकट होता है और पुरानी पत्तियों पर रोग का आक्रमण पहले होता है | अधिक संक्रमित पत्तियां पौधे से अलग होकर भूमि में गिर जाती हैं तथा उनके ऊपर कवक के फलनकाय (पिक्निडिया) तथा इनके अंदर कवक के बीजाणु (पिक्निडियोबीजाणु) बनते हैं | पत्तियों के झड़ जाने से पौधे में प्रकाश संश्लेषण घट जाता है तथा इसके कारण फलियों का निर्माण उल्लेखनीय रूप से कम हो जाता है | फलियों पर भी अंगमारी के लक्षण प्रकट होते हैं तथा संक्रमित फलियाँ सिंकुड़कर विकृत हो जातीं हैं अथवा पूरी तरह झुलस जातीं हैं |
रोगजनक:
इस रोग का कारक एक कवक है जिसको उसकी अवस्थाओं के अनुसार अनेक नामों से जाना जाता है | ये नाम इस प्रकार है:
पिक्निडियल अवस्था-   मैक्रोफोमिना फैजिओलिना (तासी) गोइड.
स्क्लेरोशियल अवस्था- राइजोक्टोनिया बटाटिकोला (तौब.) बटलर
पर्यायवाची नाम-        मैक्रोफोमिना फैजिओलाई मौबल
                                              मैक्रोफोमिना फैजिओलाई (मौबल) ऐश्बी
                                              स्क्लेरोशियम बटाटिकोला तौब.
रोगजनक कवक के स्क्लेरोशिया अथवा कठकवक माप में ४२-१२६ माइक्रॉन व्यास के होते हैं | कृत्रिम संवर्ध में पिक्निडिया का निर्माण नहीं होता है किन्तु पौधे पर संक्रमण के फलस्वरूप विशिष्ट वातावरणीय परिस्थितियों में इनका निर्माण होता है | पिक्निडिया गहरे भूरे रंग के होते हैं तथा संक्रमित तनों अथवा पत्तियों पर ये अकेले अथवा समूह में बन सकते हैं | ये फलनकाय सामान्य तौर पर संक्रमित ऊतकों के अंदर बनते हैं किन्तु बाद में सतह पर आकर नियमित मुख (ओस्टियोल) द्वारा खुल जाते हैं | पिक्निडिया के अन्दर छोटे-छोटे बीजाणुधर (कोनिडियमधर) होते हैं जिन पर बीजाणु बनते हैं और ओस्टियोल के माध्यम से बाहर निकलते है तथा स्वस्थ स्थानों पर पहुंचकर नवीन संक्रमण करते हैं | ये बीजाणु अथवा कोनिडिया एककोशिकीय, रंगहीन, अंडाकार, लम्बे अथवा दीर्घवृत्ताकार हो सकते हैं | संक्रमित अंगों के अधर पर प्राप्त कवक के विभिन्न छ: आईसोलेट आपस में कुछ गुणों में भिन्नता प्रदर्शित करते हैं | इनमें मिट्टी, बीज, जड़, तना, पत्ती तथा फली से प्राप्त छ: आईसोलेट आपस में रोगजनकता, आकारिकी तथा वृद्धि आवश्यकताओं जैसे गुणों में से किसी एक अथवा अधिक में भिन्नता प्रदर्शित कर सकते है |
रोगजनक का परपोषी परिसर काफी व्यापक होता है तथा इस बात की पुष्टि इस तथ्य से हो जाती है कि राइजोक्टोनिया बटाटिकोला लगभग २८४ पौधों में संक्रमण कर सकता है  (वेस्टल, १९५६) | इनमें मूंग, उड़द, मटर, लोबिया, अरहर, भिन्डी, मिर्च, सेमवर्गीय पौधे तथा टमाटर सम्मिलित हैं |
संक्रमित पौधों और फलियों से प्राप्त बीजों में रोगनजक का वितरण बाह्य एवं आन्तरिक, दोनों ही प्रकार का हो सकता है तथा रोग से प्रभावित फलियों से प्राप्त बीजों में संक्रमित बीजों की मात्रा ६१.८ प्रतिशत तक हो सकती है जिनमें से ४७ प्रतिशत में रोगजनक का वितरण आन्तरिक होता है | बीजों के अलावा रोगजनक कवक संक्रमित पौध अवशेषों, मृदा में उपस्थित कार्बनिक आधारों और अन्य परपोषियों के ऊपर जीवित रह सकता है |
फसल के पोषण और रोग की तीव्रता में सहसम्बन्ध स्थापित किया गया है | यदि नत्रजन फॉस्फोरस तथा पोटाश, तीनों से फसल का पोषण किया जाय तो रोग की तीव्रता कम होती है | इसके बजाय यदि फसल का इन तीनों तत्वों में से किसी से भी पोषण न किया जाय अथवा फसल का पोषण केवल फॉस्फोरस तथा पोटाश से किया जाय तो रोग की तीव्रता में वृद्धि होती है | फॉस्फोरस (P2O5) का अधिक उपयोग रोग की तीव्रता में वृद्धि करने वाला पाया गया है |
रोग का प्रबंधन:
रोग के प्रबंधन के उपायों में स्वस्थ फसल से प्राप्त स्वस्थ तथा प्रमाणित बीजों का प्रयोग सबसे महत्त्वपूर्ण है | बीजोढ़ रोगजनक बाहर से आयातित निवेशद्रव्य की अपेक्षा सदैव ही अधिक हानि करता है क्योंकि उसका परपोषी पौधे के साथ लगभग स्थिर और स्थायी सम्बन्ध होता है | बीजों का उपचार रोग प्रबंधन की दिशा में एक बड़ा कदम होता है और इस रोग के प्रबंधन हेतु बीज उपचार के लिए जैविक तथा रासायनिक, दोनों ही विकल्प मौजूद हैं | जैविक साधनों में ट्राईकोडर्मा विरिडी द्वारा बीज उपचार रोग प्रबंधन में काफी सहायक सिद्ध हुआ है | इसके अलावा रासायनिक बीज उपचार के लिए उपलब्ध कवकनाशी रसायनों का परिसर काफी व्यापक है | इनमें कार्बोक्सिन, बेनोमिल, कार्बेन्डाजिम, थायोफैनेट मिथाइल, इप्रोडिओन तथा आरएच ८९३ इस कवक के विरुद्ध अत्यंत प्रभावी पाए गए हैं | इनके अलावा कैप्टान अथवा थिरम से बीज उपचार करके इस रोग से पौध में होने वाले हानियों से सुरक्षा प्राप्त की जा सकती है | मृदा जनित मृतजीवी निवेशद्रव्य के निवारण में कैप्टान काफी प्रभावी पाया गया है जबकि कार्बेन्डाजिम और मैन्कोजेब का प्रभाव अत्यंत सीमित देखा गया है |
स्वच्छ कृषि तथा खरपतवारों का उन्मूलन रोग प्रबंधन के लिए आवश्यक ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य है | खरपतवार के रूप में खेत अथवा इसके आस-पास मौजूद अन्य पौधे रोगजनक के लिए परपोषी का कार्य करते है और रोग-प्रबंधन के सभी उपायों को विफल करने की क्षमता रखते हैं |
कर्षण क्रियाओं का भी रोग प्रबंधन में बड़ा योगदान है | उचित जल निकास तथा खेत में पानी लगने से बचाव रोग की तीव्रता में कमी करने में सहायक है | घनी बुआई करने से बचना चाहिए क्योंकि इससे सूक्ष्म जलवायु रोग के विकास के लिए अनुकूल हो सकती है | फसल–चक्र का पालन करके रोगजनक को मृदा में स्थापित होने से रोका जा सकता है | इसके लिए धान, ज्वार, बाजरा आदि अच्छी फसलें हैं | मिट्टी में चूने का प्रयोग तथा कार्बनिक पदार्थों का समावेश करके भी रोग की तीव्रता में कमी लाई जा सकती है | फसल के उचित पोषण के लिए सदैव मृदा परीक्षण के आधार पर ही पोषक तत्वों की मात्रा निर्धारित करें | अधिक फॉस्फोरस के प्रयोग से परहेज़ करें तथा संतुलित मात्रा में ही उर्वरकों से फसल पोषण करें |
खड़ी फसल में रोग प्रबंधन के लिए कवकनाशी रसायनों का छिड़काव आवश्यक होता है | इस रोग से होने वाली हानि से बचाव के लिए बेनोमिल, कैप्टान, जिनेब, मैंकोजेब, तथा कार्बेन्डाजिम में से किसी एक का बुआई के १० और २० दिनों बाद छिड़काव काफी प्रभावकारी पाया गया है | कार्बेन्डाजिम से बीज उपचार की दशा में इसी कवकनाशी का बुआई के ३० और ४५ दिनों बाद छिड़काव रोग प्रबंधन में अत्यंत ही लाभप्रद सिद्ध हुआ है |
५.    पीला चित्रवर्ण (येलो मोजैक) रोग:
यह मूंग और उर्द का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रोग है तथा इससे इन दोनों फसलों में सबसे अधिक हानि होती है | इस रोग का वितरण काफी व्यापक है तथा भारत समेत यह रोग पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड,फिलिपीन्स, पापुआ न्यू गिनी, कोलम्बिया तथा इथिओपिया एवं दक्षिण पूर्व एशिया के अनेक देशों में भी पाया जाता है | भारत में इसे कम से कम १९४५ से जाना जाता है (अज्ञात, १९४५; वासुदेव, १९५८) और सम्प्रति इसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, और तमिल नाडु से प्रतिवेदित किया जा चुका है | बाद में इस रोग का विस्तृत अध्ययन नरियानी (१९६०) द्वारा किया गया जिन्होंने इसे “मूंग का येलो मोजैक अथवा पीला चित्रवर्ण रोग” नाम दिया  और स्पष्ट किया कि यह रोग बाकला (फैजिओलस लुनाटस) तथा सेम (डॉलीकस लैबलैब) के पीले चित्रवर्ण रोग से अलग है | यह रोग उत्तर प्रदेश के तराई भागों में बहुतायत से पाया जाता है जिसका नेने (१९६९अ तथा १९६९ ब) ने विस्तारपूर्वक अध्ययन किया और इसके कारक को मूंग का पीला चित्रवर्ण विषाणु (मूंगबीन येलो मोजैक वायरस-एमवाईएमवी) नाम दिया |
उड़द और मूंग के सभी प्रतिवेदित रोगों में पीला चित्रवर्ण रोग सबसे अधिक हानि पहुंचाता है | इसके कारण पौधों के शुष्क भार, प्ररोह तथा मूल की लम्बाई, पर्ण क्षेत्रफल, और पौधे की फली निर्माण क्षमता में उल्लेखनीय कमी दर्ज़ की जाती है | रोग के कारण पौधों में हरिमाहीनता, वृद्धि में रुकावट के कारण पौधे का छोटा रह जाना, और उसकी शाखा निर्माण क्षमता में कमी देखी जाती है | मरिमुथु एवं साथियों (१९८१) ने मूंग की फसल में इस रोग के कारण होने वाली हानि को फसल की संक्रमित होने वाली अवस्था के आधार पर १० से १०० प्रतिशत तक आँका है | सिंह एवं साथियों (१९८२) ने इस रोग से होने वाली सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हानि के रूप में फलियों का कम बनना तथा फलियों की परिपक्वता में विलम्ब को माना है |
रोग के लक्षण:
मूंग की फसल पर रोग के लक्षण संक्रमण के १२-१६ दिनों के अंदर नई पत्तियों पर हल्के, बिखरे हुए पीले रंग के छोटे-छोटे धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं | पौधे के शीर्ष की ओर से पहले त्रिपर्ण (trifoliate) पर एकान्तरित रूप से हरे तथा पीले चकत्ते दिखाई देते हैं | पत्ती के सामान्य माप में कोई कमी नहीं होती, किन्तु कभी-कभी चकत्ते के रूप में पत्ती के हरे भाग पर्णफलक के सामान्य सतह से थोडा ऊँचे उठे हुए रहते हैं, जिसके कारण पत्ती विकृत सी दिखाई देती है  और ऊपर से देखने में पत्ती अपने सामान्य माप से छोटी नज़र आती है | पत्ती पर पीले चकत्तेनुमा भाग धीरे-धीरे माप में बढ़ते जाते हैं और अंतत: शीर्ष की कुछ पत्तियाँ पूरी तरह पीली हो जातीं हैं | संक्रमित पौधों की बढ़वार रुक जाती है तथा उनमे पुष्पन एवं फलियों के निर्माण में विलम्ब होता है | फूल और फलियाँ संख्या में कम बनते हैं और उनमें बनने वाले दाने आकार में छोटे, सिंकुड़े तथा विकृत हो सकते हैं | प्रभावित पौधों में नने वाली फलियाँ भी किनारे से मुड़ जातीं हैं और विकृत हो सकतीं हैं | फसल की प्रारम्भिक अवस्था में हुए संक्रमण द्वारा नुकसान की मात्रा बढ़ जाती है और उन पर बनने वाले लक्षण अधिक स्पष्ट हो जाते हैं जबकि विलंबित संक्रमण की दशा में नुकसान सीमित रहता है और रोग के लक्षण भी कुछ अस्पष्ट से होते हैं | रोग के संक्रमण द्वारा उड़द और मूंग पर बनने वाले लक्षणों में एकरूपता पाई जाती है किन्तु अन्य परपोषियों में रोग के संक्रमण द्वारा उत्पन्न लक्षण इन दोनों फसलों से भिन्न हो सकते है |
नेने (१९६९अ एवं १९६९ब) ने इस रोग के लक्षणों को दो प्रकारों में विभक्त किया है- एक तो पीली अथवा हरिमाहीन चित्तियाँ (yellow or chlorotic mottle) तथा दूसरी  ऊतकक्षयी चित्तियाँ (necrotic mottle) | पीली अथवा हरिमाहीन चित्तियाँ सामान्यत: पुष्पावस्था के समय प्रकट होतीं हैं और जैसा कि नाम से स्पष्ट होता है, इनमें पीले रंग के कुछ-कुछ विसरित (diffused) धब्बे सम्पूर्ण पर्णफलक पर वितरित होते हैं | ये धब्बे धीरे-धीरे आकार में बढ़ते जाते हैं और इसके फलस्वरूप पत्तियों पर सामान्य हरे रंग के साथ एकान्तरित रूप से पीले रंग के बड़े चकत्ते बन जाते हैं | नई निकलने वाली पत्तियों पर रोग के लक्षण अधिक स्पष्ट होते हैं तथा ऐसी पत्तियां सामान्यतया पीली ही निकलतीं हैं  और जैसे ही वे खुलतीं हैं, रोग अपने लाक्षणिक रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है | संक्रमित पौधों की पत्तियां आकार में सामान्य से छोटी रह जातीं हैं तथा बाद में चलकर पीली पड़ जातीं हैं | रोग की तीव्र अवस्था में इन पर ऊतकक्षयी धब्बे भी दिखाई देने लगते हैं | ऊतकक्षयी चित्तियों वाले लक्षण में महीन शिराओं से घिरे हुए छोटे तथा पीले रंग के धब्बे प्रकट होते हैं | आस-पास के अनेक छोटे धब्बे आपस में मिलकर बड़े धब्बों का निर्माण करते हैं | शीघ्र ही, इन ढाबों के केंद्र में ऊतकक्षय के लक्षण प्रकट होते हैं और धब्बों का पीला रंग धीरे-धीरे सफेद रंग में परिवर्तित होने लगता है | रोग के ये लक्षण सर्वांगी होते हैं और स्थानिक रूप में इनका वितरण कोई अर्थ नहीं रखता है | इन लक्षणों के चलते पत्तियों के आकार में कमी तथा फलियों के निर्माण की प्रक्रिया अथवा पौधे की फली निर्माण क्षमता पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखाई देता है |
वास्तव में रोग के ये दोनों प्रकार के लक्षण एक ही रोगकारी पादप विषाणु द्वारा फसल की अलग-अलग प्रजातियों के लिए विशिष्ट होते हैं इसीलिए एक ही प्रजाति पर दोनों प्रकार के लक्षणों की तीव्रता और उपस्थिति एक समान नहीं होती | यह देखा गया है कि पीले अथवा हरिमाहीन चित्तियों वाले लक्षणों की अपेक्षा ऊतकक्षयी चित्तियों वाले लक्षणों की प्रधानता की स्थिति में रोग द्वारा उपज की हानि अपेक्षाकृत कम होती है | इसीलिए ऊतकक्षयी चित्तियों वाले लक्षणों को रोग के प्रति प्रतिरोधी प्रतिक्रिया के रूप में मान्यता दी जाती है |
रोगकारक विषाणु:     
इस रोग का कारक एक पादप विषाणु है जिसे मूंग का पीला चित्रवर्ण विषाणु (मूंगबीन येलो मोजैक वायरस-एमवाईएमवी) के नाम से जाना जाता है | यह विषाणु उड़द तथा मूंग के अलावा अनेक अन्य पौधों को भी संक्रमित करता है तथा उन पर लम्बे समय तक बना रहता है | इनमें मोठ, सोयाबीन, अरहर, सेमवर्गीय सब्जियां, तथा अन्य पौधे शामिल हैं | आकारिकी के अध्ययन से ज्ञात होता है कि विषाणु के कण गोलाकार (isometric), जुड़वां (paired) तथा १८×३० नैनोमीटर माप के होते हैं | इनमे एकसूत्रीय डीएनए मौजूद होता है | जीन वाहकों के तौर पर ये कम ही उपयुक्त पाए गए हैं | संक्रमित पौधों में विषाणु के कण फ्लोएम सम्बन्धित ऊतकों में पाए जाते हैं | अमीन एवं सिंह (१९८९) द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर इस विषाणु में अनेक विभेदों की उपस्थिति की सम्भावना व्यक्त की जाती है |
रोगजनक विषाणु का संचार अथवा संचरण श्वेत मक्खी (Bemisia tabaci) द्वारा सम्पन्न किया जाता है | इसके अलावा ग्राफ्ट लगाने (ग्राफ्टिंग) से भी  विषाणु का संचरण सम्भव है | हालाँकि विषाणु का संचरण केवल एक ही श्वेत मक्खी द्वारा सम्भव है किन्तु रोग की संक्रामकता तब अधिक होती है जबकि १०-१५ श्वेत मक्खियों द्वारा इनका संचरण किया जाय | इसी प्रकार श्वेत मक्खी द्वारा संक्रमित उड़द अथवा मूंग के पौधों से १० मिनट तक रस चूसने के उपरांत विषाणु का संचरण सम्भव है किन्तु यदि उपरोक्त रस चूसने की अवधि एक से दो घंटों तक बढ़ा दी जाय तो विषाणु का संचरण अधिक होता है | एक बार संचारी कीट (श्वेत मक्खी) ने विषाणु को ग्रहण कर लिया तो अगले २ से ४ घंटों के ऊष्मायन अवधि के पश्चात यह मक्खी विषाणु का संचरण आसानी से कर सकती है | हालाँकि विषाणु के सफलतापूर्वक संचरण के लिए कम से कम आधे घंटे तक स्वस्थ पौधे पर संचारी कीट का रस चूसना आवश्यक है किन्तु यदि यह मक्खी एक घंटे अथवा इससे अधिक समय तक स्वस्थ पौधे से रस चूसती है तो संचरण अधिक होता है | एक बार विषाणु ग्रहण कर लेने के बाद श्वेत मक्खी अगले ३ दिनों (नर मक्खी) से १० दिनों (मादा मक्खी) तक विषाणु को संचारित करती रहती है |
रोग का प्रबंधन:
चूँकि यह एक विषाणुजनित रोग है अत: इसका प्रबंधन भी अन्य पादप विषाणु रोगों के प्रबंधन की भांति जटिल होता है | किसी एक विधि द्वारा रोग से राहत मिलनी लगभग असम्भव सी बात है, अत: इसके प्रबंधन के लिए एक से अधिक उपायों का आपस में समन्वयन करना आवश्यक होता है | इन सभी उपायों में प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय है जिसके बगैर रोग प्रबंधन की कल्पना करना कठिन होता है | प्रतिरोधी प्रजातियाँ रोग से राहत देने के साथ-साथ इसके प्रभाव से होने वाली आर्थिक हानि को भी कम करतीं हैं जिससे काफी हद तक रोग प्रबंधन में सहायता मिलती है | भारतीय दलहन अनुसन्धान संस्थान, कल्यानपुर, कानपुर द्वारा विकसित आईपीयू ०७-३, पीडीयू १ (बसंत बहार) तथा आईपीयू ९४-१ (उत्तरा) जैसी उड़द की प्रजातियाँ मूंग के पीले चित्रवर्ण रोग के लिए प्रतिरोधी हैं | बुआई के समय में थोडा हेर-फेर करके भी रोग के प्रकोप में कमी लाई जा सकती है लेकिन यह एक से दूसरे क्षेत्र में भिन्न-भिन्न हो सकता है | उड़द और मूंग की अंतर्प्रजातीय अंतर्कृषि करने से भी रोग के प्रारंभिक प्रकोप को कम करने में सहायता मिलती है | किन्तु यदि एक बार रोग का आक्रमण हो जाता है तो इस प्रकार के खेतों में रोग का प्रसार शुद्ध फसल वाले खेतों के मुकाबले अधिक तेज़ी से होता है |
फसल का समुचित पोषण पौधों की रोग के प्रति संवेदनशीलता में कमी करने में सहायक होता है | संतुलित मात्रा में पौध पोषक तत्त्वों का प्रयोग पौधों को स्वस्थ तथा रोगमुक्त रखने में सहायक है | नत्रजन के अधिक प्रयोग से विशेष तौर पर परहेज़ करना चाहिए क्योंकि इससे पौधे सरस और मुलायम हो जाते हैं तथा उन पर संचारी कीट का प्रकोप अधिक होता है जिसके चलते रोग की मात्रा में वृद्धि होना स्वाभाविक है |
रोग के रासायनिक प्रबंधन के लिए संचारी कीट का नियंत्रण सबसे महत्वपूर्ण उपाय है | इसके लिए श्वेत मक्खी के नियंत्रण की सभी प्रक्रियाओं का पालन करना आवश्यक होता है | सर्वांगी कीटनाशियों और निओनिकोटिनोइड्स का प्रयोग इस दिशा में विशेष रूप से उल्लेखनीय है | श्वेत मक्खी के नियंत्रण के लिए कुछ प्रभावी कीटनाशकों में मोनोक्रोटोफॉस, मेटासिस्टॉक्स, डाइमेथोएट, इमिडाक्लोप्रिड, एसिटामिप्रिड आदि सम्मिलित हैं | इसके अलावा खनिज तेल का पर्णीय प्रयोग (२%) भी श्वेत मक्खी के नियंत्रण में प्रभावी पाया गया है | नीमार्क (५ मिली) तथा टीपोल (०.२५ मिली) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से भी रोग के संचारी कीट का प्रबंधन किया जा सकता है |
इस प्रकार उड़द जैसी महत्त्वपूर्ण दलहनी फसल में प्रमुख रोगों का प्रबंधन करके किसान अच्छी और गुणवत्तापूर्ण उपज तथा तदनुसार अच्छा आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं |


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[1] असिस्टेंट प्रोफेसर (फसल सुरक्षा), कवक एवं पादप रोग विज्ञान विभाग (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-कृषि विज्ञान केन्द्र, कृषि विज्ञान संस्थान, राजीव गाँधी दक्षिणी परिसर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, बरकछा, मीरजापुर
[2] अध्यक्ष, पादप रोग विज्ञान विभाग, कृषि संकाय, उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय, वाराणसी-२२१ ००२
[3] असिस्टेंट प्रोफेसर (कृषि अभियांत्रिकी), कृषि अभियंत्रण विभाग (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-कृषि विज्ञान केन्द्र), कृषि विज्ञान संस्थान, राजीव गाँधी दक्षिणी परिसर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, बरकछा, मीरजापुर
[4] कार्यक्रम सहायक (मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन), मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन विभाग (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-कृषि विज्ञान केन्द्र), कृषि विज्ञान संस्थान, राजीव गाँधी दक्षिणी परिसर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, बरकछा, मीरजापुर