Thursday 14 June 2018

नव प्रवर्तन: भारत को विश्वगुरु की आसंदी पर पुनर्प्रतिष्ठापित करने का एकमेव माध्यम


मित्रों,
भारतवर्ष संभावनाओं का देश है. ऐसा मैं इसलिए कह सकता हूँ क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में सबसे अधिक युवा मस्तिष्क भारत में निवास करता है. सवा सौ करोड़ हमारी जनसंख्या नहीं, हमारी ‘जहनसंख्या’ के लिहाज से अहम है. यदि इतनी विशाल संख्या में मानव मस्तिष्क किसी वृहत्तर लक्ष्य के प्रति गंभीर हो जाए तो वह सहज ही प्राप्त हो सकता है. यह वृहत्तर लक्ष्य समाज के कल्याण का होना चाहिए, चाहे उसके साधन, माध्यम अथवा उपकरण कुछ भी हों. अरुणाचलम मुरुगनाथन का नाम आप सबने सुना ही होगा- इन्हें ‘पैडमैन ऑफ़ इण्डिया’ के नाम से भी जाना जाता है और इनके जीवन तथा संघर्ष की कहानी पर एक लोकप्रिय फिल्म का निर्माण भी हुआ है. मुझे आशा है, आपने वह फिल्म अवश्य देखी होगी. उन्होंने महिला स्वच्छता और स्वास्थ्य को समाज कल्याण के एक उपलक्ष्य के रूप में चुना और वह कर दिखाया, जिसको असंभव मानकर लोग उनका मजाक उड़ाते थे और उन्हें पागल तक घोषित करने पर आमादा थे. कम कीमत वाले सैनिटरी नैपकिन बनाने वाली मशीन बनाकर उन्होंने समाज कल्याण के साथ-साथ महिलाओं के आत्म-सम्मान की रक्षा भी की. ऐसे अनेक मुरूगनाथन हमारे बीच हैं लेकिन उनके मस्तिष्क को उस सीमा तक झकझोरने के लिए आवश्यक उत्प्रेरक संभवत: कम हैं. नव प्रवर्तन तभी संभव होता है जब आप के पास ऐसा संकल्प हो, जो आपको कुछ और सोचने न दे, कुछ और करने न दे. इसके साथ ही चाहिए समाज की रूढ़ियों और स्थापित मान्यताओं से भिड़ने का हौसला, जिसको हासिल करने के लिए विवेकपूर्ण रूप से बेहद जिद्दी होना आवश्यक है.
नव प्रवर्तन का जन्म तभी संभव है जब विचारों का, अवधारणाओं का, ज्ञान का और क्षमताओं का मुक्त प्रवाह सुनिश्चित किया जाय. कई बार हम देखते हैं कि अनुभवजन्य ज्ञान शिक्षा के परम्परागत रूप से प्राप्त ज्ञान से काफी अलग होता है. यह विलगाव अथवा अंतर अनेक कारकों के द्वारा उत्पन्न किया हुआ हो सकता है जिनमें स्थानीयता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. शिक्षा ज्ञान को परिष्कृत, प्रशस्त और पुष्ट करने का कार्य अवश्य करती है किन्तु ज्ञान अपने अस्तित्व के लिए शिक्षा पर पूरी तरह निर्भर नहीं होता. भारतवर्ष में ज्ञान से समृद्ध ऐसे लोगों की बहुलता है जिन्हें अधिक शिक्षा प्राप्ति का अवसर नहीं मिला. वे आर्थिक रूप से गरीब भी हो सकते हैं, किन्तु उनके अंदर अनेक जटिल समस्याओं का सरल समाधान निकाल लेने की अद्भुत क्षमता है. राष्ट्र के सामने यह एक चुनौती है कि ऐसे लोगों के ज्ञान और उनकी क्षमताओं का पूरा लाभ उठाया जाय ताकि समस्याओं का व्यापक रूप से समाधान संभव किया जा सके. हमारा पारंपरिक ज्ञान भी काफी समृद्ध है और इसकी व्यावहारिकता पर कदाचित ही कोई प्रश्नचिन्ह लगा हो. इस ज्ञान को बदलते समय में उभर कर आने वाली नवीन समस्याओं के निराकरण के लिए कैसे प्रयोग किया जा सकता है, यह अपने आप में नव प्रवर्तन का एक बड़ा क्षेत्र है. ज्ञान का लम्बे समय तक संरक्षण तभी किया जा सकता है जब उसकी प्रासंगिकता और व्यावहारिकता दूरगामी हो. इसके लिए ज्ञान का मुक्त प्रसार एक अनिवार्य शर्त है क्योंकि एक स्थान पर उपलब्ध ज्ञान स्थानीय स्तर पर अप्रासंगिक होने के बावजूद दूसरे अन्य स्थानों पर न केवल प्रासंगिक हो सकता है, वरन उसकी व्यावहारिकता भी उच्च स्तर की हो सकती है. ज्ञान को स्थानीयता से मुक्त करना अपने आप में एक बड़ा कार्य है और इसे तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि जनसामान्य को जागरूक करके उनके मस्तिष्क में वैज्ञानिक चेतना का विकास न किया जाय. यही एकमात्र साधन है जिससे हम नव प्रवर्तन के लिए उन्मुख मस्तिष्क तथा प्रतिभाओं को चिन्हित कर सकते हैं. समाज में प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य बनता है कि ऐसी प्रतिभाओं को सामने लाने में अपनी भूमिका तथा अपना योगदान सुनिश्चित करे. आप लोगों में से अधिकतर लोग अपने-अपने गांवों के प्रमुख हैं और इसलिए आपकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है कि अपने क्षेत्र में किसी भी ऐसी प्रतिभा को न केवल प्रोत्साहन दें, बल्कि उसे उपयुक्त मंच प्रदान करने में सक्रिय रूप से योगदान करें. समाज में यत्र-तत्र बिखरी ऐसी प्रतिभाओं को उनकी प्रतिभा के विकास, उसके पल्लवन तथा पुष्पन के लिए आवश्यक वातावरण प्रदान करके वृहत्तर समाज के कल्याण में उनके ज्ञान का उपयोग समस्याओं के निराकरण द्वारा किया जा सकता है.
नव प्रवर्तन में स्कूलों की भूमिका संभवत: सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और इसीलिए विज्ञान के हमारे अध्यापकों का उत्तरदायित्व भी बढ़ जाता है. एक अनगढ़ मस्तिष्क की उर्वरा शक्ति को विकसित करना आसान कार्य नहीं है और संभवत: इसीलिए हम शिक्षा के पारम्परिक ढांचे पर प्रश्नचिन्ह लगाने का प्रयत्न नहीं करते. किताबी ज्ञान को रटने का केन्द्र बनने के बजाय हमारे स्कूल विद्यार्थी के मस्तिष्क में विचारों की खेती करने के केंद्र बनने चाहिए. तभी जाकर हम अपनी प्रतिभाओं को सही दिशा दे पाने में पूर्ण रूप से सक्षम होंगे. हम एक चेतनमना नागरिक के तौर पर अपने समाज में इन बातों को सुनिश्चित करने में सुविधानुसार अपनी भूमिका तय तो कर ही सकते हैं.
जिला विज्ञान क्लब के माध्यम से नियमित रूप से वैज्ञानिक प्रदर्शनी के आयोजनों द्वारा विगत वर्षों में हमने देखा है कि जनपद मीरजापुर में निवास करने वाला मस्तिष्क कितना उर्वर है, इसमें पलने वाले विचार कितने व्यापक हैं और इसकी क्षमताएँ कितनी वृहत हैं. इस प्रकार के आयोजन न केवल विचारों के मुक्त प्रवाह को रास्ता देते हैं बल्कि एक दूसरे से संपर्क द्वारा नवीन विचारों के जन्म का भी माध्यम बनते हैं. इस अवसर पर वैज्ञानिक समुदाय नव प्रवर्तकों के ज्ञान की परख तो करता ही है, उसे परिष्कृत और पुष्ट करने का भी कार्य करता है. कुल मिलाकर हमें ऐसा मुक्ताकाशी वातावरण बनाना है जिसमें कोई भी रचनाशील मस्तिष्क अपने विचारों, अवधारणाओं तथा सिद्धांतों को व्यावहारिक धरातल पर उतारने के लिए भरपूर उड़ान भर सके. हम सभी इस पुनीत कार्य में एक दूसरे के पूरक और प्रेरक की तरह कार्य करेंगे, आइये इसका संकल्प लें.
आप सभी का अनेक धन्यवाद और आभार!!

Friday 8 June 2018

धान की फसल को रोगों तथा कीटों से बचाने के लिए बीज उपचार करें


धान की फसल को रोगों तथा कीटों से बचाने के लिए बीज उपचार करें
खरीफ मौसम के आगमन के दृष्टिगत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-कृषि विज्ञान केन्द्र, बरकछा, मीरजापुर के फसल सुरक्षा वैज्ञानिक डॉ. जय पी. राय की सलाह है कि किसान बन्धु धान की फसल को रोगों तथा कीटों से बचाने के लिए बुआई से पूर्व बीजों का उपचार अवश्य करें। बीज उपचार अनेक फसल सुरक्षा समस्याओं का एक छोटा, अल्प  श्रमसाध्य, अत्यन्त सस्ता तथा बहुत ही प्रभावी उपाय होता है। धान की फसल में आक्रमण करने वाले विभिन्न रोगों तथा कीटों के लिए अलग-अलग प्रकार के बीज उपचार प्रभावी होते हैं। इनमें धान के कवकजनित रोगों तथा मूल सम्बन्धी समस्याओं के लिए ट्राइकोडर्मा के संरूप की ५ से १० ग्राम मात्रा का प्रति किग्रा बीज के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त जैव अभिकर्मक की अनुपलब्धता की स्थिति में कवकनाशी रसायनों का प्रयोग किया जा सकता है। इनमें बेनलेट अथवा मैंकोजेब रसायन प्रमुख हैं जिनकी ३ ग्राम मात्रा का प्रति किग्रा धान के बीजों के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है। धान की फसल के जीवाणुजनित रोगों जैसे जीवाणु पर्णच्छद झुलसा की रोकथाम के लिए स्यूडोमोनास फ्लुओरेसेन्स के ०.५ प्रतिशत घुलनशील चूर्ण संरूप की १० ग्राम मात्रा से प्रति किग्रा धान के बीजों का उपचार किया जाता है।
कीटों तथा सूत्रकृमियों से छुटकारा पाने के लिए बीजों का उपचार मोनोक्रोटोफ़ॉस नामक रसायन के ०.२  प्रतिशत जलीय घोल में बीजों को ६ से ८ घण्टों तक डुबाकर करना चाहिए। दीमकों के प्रकोप वाले स्थानों पर क्लोरपाइरीफ़ॉस नामक रसायन की ३  ग्राम मात्रा से प्रति किग्रा धान के बीज का उपचार करना चाहिए।


Sunday 1 April 2018

कद्दूवर्गीय सब्जियों का गोंदिया तना झुलसा (गमी स्टेम ब्लाइट) अथवा काला सड़न रोग तथा इसकी रोकथाम




भारतवर्ष की अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी है और इस कारण से यहाँ के लोगों के आहार में सब्जियों तथा फलों का विशेष  महत्त्व है। सभी प्रकार की सब्जियों में कद्दूवर्गीय सब्जी फसलों का प्रमुख स्थान इसलिए होता है क्योंकि ये सब्जियाँ प्रायः वर्षभर उपलब्ध रहतीं हैं तथा पौष्टिकता के मामले में इनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। भारत के उत्तरी मैदानी भागों में गर्मी के मौसम में, जबकि अधिकतम वनस्पतियाँ सूख जातीं हैं और बिना संरक्षित कृषि के हरी सब्जियों की खेती संभव नहीं होती, कद्दूवर्गीय सब्जियाँ घर-आँगन तथा पिछवाड़े लता की तरह उगाई जा सकतीं हैं और इस कठिन समय में मानव पोषण का महत्त्वपूर्ण साधन होती हैं।

सभी प्रकार की वनस्पतियों की भाँति कद्दूवर्गीय सब्जी फसलों में भी अनेक प्रकार के रोगों का आक्रमण होता है। ये रोग न केवल सब्जी उत्पाद की गुणवत्ता में गिरावट के लिए उत्तरदायी होते हैं बल्कि उत्पादों तथा उपज की मात्रा में भी भारी कमी करते हैं जिससे न केवल सब्जी उत्पाद की मात्रा में कमी होती है बल्कि उसके पोषण मान पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। गोंदिया/चिपचिपा तना झुलसा (गमी स्टेम ब्लाइट) और काला सड़न (ब्लैक राॅट) खरबूजा, तरबूज और ककड़ी की एक सामान्य बीमारी है। ये दोनों एक ही रोग के दो नाम अथवा दो विभिन्न अवस्थाएँ हैं। जब रोग पत्तियों तथा तनों को संक्रमित करता है तो यह अंगमारी के लक्षण उत्पन्न करता है तथा ऐसे में इसे गोंदिया तना झुलसा (गमी स्टेम ब्लाइट) रोग कहा जाता है। इसके विपरीत जब रोग का संक्रमण फलों पर आता है तो यह फलों के विगलन अथवा सड़न के लक्षण उत्पन्न करता है और तब इसे काला सड़न (ब्लैक राॅट) रोग कहा जाता है। यह काला सड़न वाली अवस्था फसल कटाई के बाद भी जारी रह सकती है। सड़न के कारण फलों में दुर्गन्ध आने लगती है। 

रोग के लक्षण तथा इसकी पहचानः
गोंदिया तना झुलसा रोग के लक्षण पहले पत्तियों के किनारों पर प्रकट होते हैं। पत्तियों के किनारों पर भूरे रंग के धब्बे बनते हैं जो धीरे-धीरे अन्दर की ओर बढ़ते जाते हैं। कद्दू, ककड़ी और समर स्क्वैश में पर्ण संक्रमण अंग्रेजी के अक्षर ‘वी’ के आकार वालेे भूरे रंग के धब्बों के रूप में पर्णफलक के ऊतकों में विकसित होता है। इन पर्णीय धब्बों को श्यामव्रण (एन्थ्रैक्नोज) के धब्बों के साथ आसानी से भ्रमित हुआ जा सकता है। हालांकि, चिपचिपा तना झुलसा के घाव अपेक्षाकृत गहरे रंग के, लक्ष्य पट्टिका (टारगेट बोर्ड) की तरह अथवा धारीदार स्वरूप (जोनेट पैटर्न) वाला होता है और इससे पत्ती के ऊतकों का क्षय श्यामव्रण की अपेक्षा कम होता है। तरबूज में भूरापन शिराओं के बीच भूरे रंग के विवर्णन या भूरे/गहरे लाल रंग के गोलाकार धब्बे के रूप में प्रकट होता है। इन धब्बों के चारों ओर पीले रंग का घेरा (हैलो) हो सकता है और पुराने धब्बे प्रायः शुष्क और फटे होते हैं। विन्टर स्क्वैश में तने अथवा पत्ती में गोंदिया/चिपचिपा तना झुलसा अवस्था नहीं प्रकट होती है किन्तु फल बनते समय काला सड़न अवस्था विकसित हो सकती है। कद्दूवर्गीय सब्जी फसलों में गोंदिया तना झुलसा अवस्था संक्रमित तनों पर विकसित होती है, जो अक्सर पौधे के शीर्ष के निकट होता है। संक्रमण के ये घाव आमतौर पर खुले होते हैं और इनसे चिपचिपे, तृणमणि (अम्बर) रंग के द्रव का स्रावण होता है। तनों पर होने वाले संक्रमणों में मुहांसों की भाँति उठी हुई रचनाएँ दिखाई देती हैं जिनके भीतर रोगकारक कवक के बीजाणुओं का उत्पादन होता है। इन बीजाणुधानियों से चिपचिपे निःस्राव निकलते हैं। फलों की सड़न प्रारम्भ में जलसिक्त धब्बों के रूप में दिखाई देती है जो आगे चलकर पूरी तरह काले रंग के हो जाते हैं। फलों का संक्रमण खड़ी फसल की अवस्था अथवा भंडारण, दोनों ही क्षेत्रों में विकसित हो सकता है।

रोगजनक तथा रोग की जैविकीः
कद्दूवर्गीय फसलों का गोंदिया/चिपचिपा तना झुलसा अथवा काला सड़न रोग एक कवकजनित रोग है और इसका कारक डिडिमेल्ला ब्राॅयनी नामक कवक होता है। यह रोगजनक कवक पौधों की सतह पर बने विक्षतों (घावों) के माध्यम से पौधे में प्रवेश करता है। ये विक्षत कीटों जैसे भृंगों (बीटल्ज़), माहुओं (एफिड्स) और रोगों जैसे चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) से पीड़ित पौधों में बनते हैं। यही कारण है कि कीटमुक्त पौधों की तुलना में कीटों की वजह से मामूली रूप से घायल होने की वजह से कीट-प्रभावित पौधों में काला सड़न और चिपचिपा तना झुलसा रोग अधिक होता है। रोग सामान्यतः पौधे के मध्य भाग से प्रारम्भ होता है और बाहरी ओर को बढ़ता है। लताओं पर रोग का प्रारम्भिक संक्रमण सामान्यतः गाँठों पर होता है जो लता (तने) पर ऊपर तथा नीचे की ओर लम्बवत् बढ़ता है। यह संक्रमण जलसिक्त धारियों के रूप में प्रकट होता है जो आगे चलकर समय के साथ पीले-भूरे से लेकर धूसर रंग का हो सकता है। षुश्क मौसम में तनों के संक्रमित भाग फट जाते हैं तथा उनसे गोंद जैसा चिपचिपा पदार्थ स्रावित होना प्रारम्भ हो जाता है। गोंदिया तना झुलसा तथा काला सड़न रोग के लिए रोगजनक कवक का निवेशद्रव्य संक्रमित बीज के माध्यम से खेतों में आ सकता है और पुरानी फसल के मलबे में एक फसली मौसम से दूसरे फसली मौसम तक जीवित रहता है। नम मौसम होने पर वर्षा ऋतु में कवक के नए निवेशद्रव्य (बीजाणु) उत्पन्न होते हैं जो पानी की बूँदों के आघात (वर्षा के छींटों) तथा पत्तियों पर मौजूद नमी के द्वारा पूरे क्षेत्र में आसानी से फैल जाते हैं। उच्च वातावरणीय आर्द्रता रोग के प्रकोप तथा प्रसार की दर में वृद्धि करने में सहायक होती है। संक्रमण के लिए रोगजनक के निवेशद्रव्य का स्रोत संक्रमित फसल के अवशेष, मिट्टी, खरपतवार और संक्रमित बीज होते हैं। निवेशद्रव्य का प्रसार हवा और हवा के धाराओं के माध्यम से फैलने वाले बीजाणुओं के द्वारा सम्पन्न होता है। 

रोग की रोकथाम तथा इसका प्रबन्धनः
स्वस्थ फसल से प्राप्त साफ, शुद्ध तथा प्रमाणित बीज सदैव ही भरोसेमन्द स्रोत से खरीदें क्योंकि संक्रमित बीजों के माध्यम से रोग का प्रसार नवीन क्षेत्रों तक संभव हो जाता है। संक्रमित फसल से कभी भी बीज एकत्रित न करें। एक ही स्थान में कद्दूवर्गीय परिवार के किसी भी सदस्य का रोपण करने से पहले इसका अन्य कुल के सब्जियों के साथ दो या अधिक वर्षों तक का फसल-चक्र अपनाएँ। जल प्रबन्धन के लिए जहाँ तक संभव हो, ऊपरी छिड़काव (स्प्रिंकलर) के बजाय ड्रिप सिंचाई का उपयोग करें। छोटे बगीचों में मौसम के अंत में संक्रमित फल और लताएँ खेत से बाहर निकालें और उन्हें सुरक्षित रूप से नष्ट करें। बड़े क्षेत्रों में, फसली मौसम के अंत में संक्रमित फसल अवशेषों को सुरक्षित रूप से नष्ट करने के लिए उन्हें खेत से निकालकर किसी बगीचे अथवा अनुत्पादक भूमि में ले जाकर मिट्टी में गाड़ दें अथवा मिट्टी का तेल डालकर जला दें। फसल में पौधभक्षी कीटों के प्रबन्धन के साथ-साथ बुआई के लिए चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) के लिए प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें या इस रोग को नियंत्रित करने के लिए उपयुक्त कवकनाशियों का छिड़काव करें। ककड़ी के भृंग (बीटल) और अन्य कीट जैसे माहू आदि कीटों को नियंत्रित करने के लिए एकीकृत कीट प्रबंधन प्रथाओं का उपयोग करें। रोग के रासायनिक प्रबन्धन के लिए न केवल वाणिज्यिक उत्पादकों बल्कि किसानों को भी विशिष्ट कवकनाशी सिफारिशों के लिए वैज्ञानिकों अथवा विशेषज्ञों से संपर्क करना चाहिए। एक सामान्य संस्तुति के अनुसार गोंदिया/चिपचिपा तना झुलसा तथा काला सड़न रोग के रासायनिक प्रबन्धन के लिए क्लोरोथैलोनिल अथवा मैंकोजेब का जलीय घोल (0.2 प्रतिशत) छिड़काव के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।