Wednesday 28 September 2016

धान की फसल में तना बेधक का प्रकोपः बचाव तथा प्रबन्धन के उपाय

धान की फसल में तना बेधक का प्रकोपः बचाव तथा प्रबन्धन के उपाय

डाॅ. जय पी. राय
असिस्टेण्ट प्रोफेसर (फसल सुरक्षा), 
कृषि विज्ञान संस्थान, 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी 
         
           धान की फसल में बालियाँ निकल रहीं हैं अथवा निकलने वाली हैं। इस अवस्था में फसल के सबसे विनाशक शत्रु तना बेधक का प्रकोप प्रारंभ हो गया है जो विभिन्न स्थानों पर फसल की अवस्था और मौसम की अनुकूलता के अनुसार विभिन्न स्तरों तक अपना प्रभाव दिखा रहा है। चूँकि फसल की यह अवस्था आर्थिक रूप से अत्यन्त संवेदी होती है और तना बेधक कीट कल्लों (टिलर्स) की संख्या में कमी होने और बालियों के सूख जाने अथवा उनके खाली रह जाने का प्रमुख कारण है अतः धान की खेती में इसका आर्थिक महत्त्व बहुत अधिक है। इसके कारण प्रतिवर्ष धान की उपज में भारी कमी होती है और किसानों को काफी नुकसान का सामना करना पड़ता है। तनाबेधक अथवा स्टेम बोरर की लगभग छह प्रमुख प्रजातियाँ धान की खेती के लिए महत्वपूर्ण नुकसान का कारण हैं। इस कीट का लार्वा ही फसल के लिए क्षतिकारक अवस्था होती है। कीट के आक्रमण के परिणामस्वरूप तने के भीतर का भाग खोखला होकर मर जाता है जिससे पौधे का संवहन तन्त्र बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाता है और ऐसे पौधों पर आने वाली बालियाँ सफेद अथवा पीली दिखाई देतीं हैं तथा वे खोखली अथवा मृत होतीं हैं। प्रभावित पौधे की बाली में दाने नहीं भरते अथवा पूरी बाली ही सूख जाती है। किसान की भाषा में इसे कहें तो पौधे के बीच का सीका (गोभ) खींचते ही वह निकलकर बाहर आ जाता है।
          कीट की पहचान कुछ सामान्य तरीकों से की जाती है जो किसान अपने स्तर से ही कर सकते हैं और इनके लिए किसी वैज्ञानिक प्रेक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। कीट के आक्रमण के प्रारम्भ में पौधों का निरीक्षण करने पर उनकी पत्तियों के किनारों पर तना बेधक कीट के भूरे रंग के अण्ड समूह दिखाई देते हैं जो कीट के संभावित प्रकोप की पुष्टि करते हैं। इन अण्डों के फूटते ही कीट के लार्वी पौधे के तने को भेदकर उसके अन्दर घुस जाते हैं तथा तने के मध्य भाग को अन्दर ही अन्दर खाना प्रारम्भ कर देते हैं। इसके परिणामस्वरूप तने के बीच का भाग अथवा केन्द्रीय गोभ सूख जाता है जिसे ऊपर से खींचने पर वह आसानी से बाहर आ जाता है। इस गोभ का सावधानी से निरीक्षण करने पर उसका निचला भाग कटा अथवा विवर्णित (भूरा) तथा सूखा दिखाई देता है। इस प्रकार के लक्षण को मृत गोभ के नाम से जाना जाता है। ऐसे पौधों में तने को बीच से फाड़कर देखने पर उसके केन्द्रीय भाग में कीट का लार्वा स्पष्ट दिखाई देता है जो कीट के आक्रमण की पुष्टि कर देता है।
          कीट के अण्डे क्रीमी सफेद रंग के होते हैं। वे चपटे, अण्डाकार, शल्क-सदृश होते हैं तथा समूह में दिए जाते हैं। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, ये अण्डे कीट की मादा द्वारा सामान्यतः पत्तियों के शीर्ष वाले किनारों पर दिए जाते हैं। कीट का अण्ड समूह नन्हें रोमों से ढका होता है जो उन्हें बाहरी क्षतिकारी कारकों से सुरक्षा प्रदान करता है। कीट के लार्वी पीले रंग के होते हैं तथा इनका सिर भूरे रंग का होता है। कीट के प्यूपा सफेद कोकून के रूप में प्रभावित तनों के अन्दर पाए जाते हैं।
          कीट के आक्रमण के लिए अनुकूल परिस्थितियों में संवेदी प्रजाति के साथ-साथ फसल में आवश्यकता से अधिक नत्रजन का प्रयोग, मृदा में सिलिका तत्त्व की कमी, शुष्क (निरन्तर वर्षा नहीं) तथा ठण्डा मौसम, उच्च वातावरणीय आर्द्रता तथा लगातार एक ही खेत में धान की खेती और पूर्व की फसल के अवशेषों को भली प्रकार नष्ट न किया जाना है।
कीट के प्रबन्धन के लिए निम्नलिखित उपायों के समन्वयन द्वारा सामूहिक प्रयास करने से अपेक्षित सफलता प्राप्त की जा सकती हैः

1. अण्ड परजीवी ट्राइकोग्रामा जैपोनिकम का मोचन
2. नीम की गिरी के सत (5 प्रतिशत) का छिड़काव
3. रोपाई के पूर्व धान की पत्तियों के सिरों को काट देने से कीट की मादा अण्डे नहीं दे पाती है, किन्तु जीवाणु           झुलसा रोग की तीव्रता वाले क्षेत्रों में इस उपाय का प्रयोग न करें।
4. अण्ड समूहों को खेत में से इकट्ठा करके मार देना चाहिए।
5. कीट के रासायनिक प्रबन्धन के लिए प्रति हेक्टेयर इनमें से किसी एक रसायन का प्रयोग कर सकते हैंः 
  • एसीफेट 75 प्रतिशत 666 से 1000 मिली
  • अजाडिरेक्टिन 0.03 प्रतिशत 1000 मिली
  • कार्बोसल्फान 6 प्रतिशत दानेदार संरूप 16.7 किग्रा
  • कार्बोसल्फान 25 प्रतिशत ईसी संरूप 800-1000 मिली
  • कार्टेप हाइड्रोक्लोराइड 50 प्रतिशत एसपी 1 किग्रा
  • क्लोरेन्ट्रानिलिप्रोल 0.4 प्रतिशत दानेदार संरूप 10 किग्रा
  • क्लोरेन्ट्रानिलिप्रोल 18.5 प्रतिशत एससी 150 मिली
  • क्लोरपाइरीफाॅस 20 प्रतिशत ईसी संरूप 1.25 लीटर
  • फिप्रोनिल 5 प्रतिशत एससी 1000-1500 ग्राम
  • फ्लुबेण्डियामाइड 20 प्रतिशत डब्ल्यूजी 125 ग्राम
  • थायाक्लोप्रिड 21.7 प्रतिशत एससी 500 ग्राम
  • थायामेथोक्जाम 25 प्रतिशत डब्ल्यूजी 100 ग्राम
  • ट्रायजोफाॅस 40 प्रतिशत ईसी 625-1250 मिली


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