Thursday 24 December 2015

बैंगन की फसल को फल एवं प्ररोह वेधक कीट से बचाएं

बैंगन की फसल को फल एवं प्ररोह बेधक कीट से बचाएं
डॉ. जय पी. राय 
असिस्टेंट प्रोफेसर एवं फसल सुरक्षा वैज्ञानिक
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-कृषि विज्ञान केन्द्र,
बरकछा, मीरजापुर-२३१००१
बैंगन भारत प्रमुख सब्ज़ी फसलों में से है। एक अनुमान के अनुसार देश में लगभग ४ लाख ७२ हज़ार हेक्टेयर क्षेत्रफल से ७६ लाख ७६ हज़ार मीट्रिक टन बैंगन का उत्पादन किया जाता है जिसके मुताबिक देश में इस सब्ज़ी फसल की उत्पादकता १६.३ मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर ठहरती है। देश में  बैंगन की खेती करने वाले प्रदेशों में उड़ीसा, बिहार, कर्नाटक पश्चिम बंगाल आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश प्रमुख हैं। बैंगन मधुमेह के रोगियों के लिए फायदेमंद होने के साथ-साथ विटामिन ए, सी तथा खनिजों का उत्तम स्रोत है
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सब्ज़ियों में रोगों और कीटों का प्रकोप प्रमुख समस्या है जिसके चलते प्रतिवर्ष आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण इन फसलों में १० से ३० प्रतिशत तक का नुकसान होता है। बैंगन इसका अपवाद नहीं है और बाज़ार की दृष्टि से प्रमुख इस महत्वपूर्ण सब्ज़ी फसल पर प्रतिवर्ष अन्य रोगों तथा कीटों के अतिरिक्त प्ररोह बेधक कीट का भी प्रकोप होता है जो इस सब्ज़ी फसल से प्राप्त होने वाले उपज को भारी नुकसान पहुंचाता है और किसानों को उसी अनुपात में आर्थिक हानि का सामना करना करना पड़ता है। एक अनुमान के अनुसार इस कीट द्वारा ३० से ५० प्रतिशत फलों की हानि होती है। इससे सहज ही इस कीट के महत्व का पता चलता है  बैंगन के फल एवं प्ररोह वेधक कीट का जंतु-वैज्ञानिक नाम ल्युसिनोडिस ऑर्बोनालिस है तथा यह लेपिडोप्टेरा गण के पाईरॉस्टिडी का सदस्य है। यह एकभक्षी कीट है तथा सामान्य रूप से बैंगन की ही फसल को नुकसान पहुंचाता है हालाँकि अत्यंत विषम परिस्थितियों में यह मटर तथा कद्दूवर्गीय पौधों समेत सोलेनेसी कुल के अन्य पौधों जैसे आलू आदि पर भी जीवित रह सकता है। इस कीट का प्रकोप एशिया तथा अफ्रीका के बैंगन की खेती करने वाले सभी उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में होता है। कीट के आक्रमण से न केवल फसल के उत्पादन में गिरावट आती है, बल्कि इससे उसकी बाजार गुणवत्ता भी उल्लेखनीय रूप से प्रभावित होती है। बैंगन के फलों में कीट द्वारा छेद कर दिया जाता जिससे उपभोक्ता ऐसे फलों को खरीदने से मना कर देते हैं अथवा इनको अत्यंत कम दाम पर खरीदते हैं। इसके अलावा प्रभावित फलों में कीट द्वारा किये गए छेद से कवकों तथा जीवाणुओं का प्रवेश सुगम हो जाता है और ऐसे फल सड़ने लग जाते हैं। अतः फल एवं प्ररोह वेधक कीट द्वारा न केवल उपज की मात्रात्मक हानि होती है बल्कि इससे होने वाले गुणात्मक हानि से फसल का बाजार मूल्य गिर जाता है और किसान को दोहरा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।
सभी सब्ज़ी फसलों की तुलना में बैंगन में प्रयोग होने वाले फसल सुरक्षा रसायनों की मात्रा काफी अधिक होती है और इसके पीछे स्पष्ट रूप से कीटों तथा रोगों का प्रकोप मुख्य कारण हैं। बैंगन में प्रति हेक्टेयर लगभग ४.६ किग्रा फसल सुरक्षा रसायनों का प्रयोग किया जाता है जो मिर्च (५.१३ किग्रा) के बाद दूसरे स्थान पर आता है। सब्ज़ी फसलों में कीटों और रोगों के प्रबंधन के लिए प्रयोग किए जाने वाले कृषि सुरक्षा रसायनों की मात्रा में कमी की जा सकती है बशर्ते फसल सुरक्षा के लिए नियमित और दूरदर्शी उपाय अपनाये जाएँ। समेकित फसल सुरक्षा के उपाय इस संबंध में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं जिनका प्रयोग करके किसान अपनी कृषि में पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य लिए घातक इन हानिकारक रसायनों की मात्रा में उल्लेखनीय कमी कर सकते हैं ।
आर्थिक क्षति स्तर का विचार:
जैसा कि हम जानते हैं, किसी कीट का आर्थिक क्षति स्तर उस कीट की संख्या के उस स्तर को कहा जाता है जिस पर कि वह आर्थिक रूप से हानिकारक सिद्ध होने लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी कीट की संख्या सदैव ही हानि पहुंचाने के स्तर तक नहीँ होती। उपयुक्त और अनुकूल परिस्थितियों में जब कीट की संख्यावृद्धि होती है तो एक स्तर ऐसा आता है जबकि कीट आर्थिक रूप से क्षतिकारक सिद्ध होने लगता है। इस स्तर पर कीट द्वारा की जाने वाली हानि (आर्थिक रूप में) और उसके नियंत्रण पर होने वाला व्यय-दोनों समान होते हैं। इस कीट के लिए आर्थिक क्षति स्तर कीट द्वारा की गई हानि का 1 से 5 प्रतिशत तक होना है। कहने का तात्पर्य यह है कि जब कीट द्वारा की गई हानि 1 से 5 प्रतिशत के बीच हो तो रासायनिक उपाय प्रारम्भ कर देने चाहिए।
कीट द्वारा की गई हानि के लक्षण:
इस कीट के आक्रमण के लक्षण सम्भवतः सर्वाधिक स्पष्ट होते हैं। जैसा कि नाम से पता चलता है, कीट पौधे पर पर्णवृन्तों और तनों के ऊपरी भागों (प्ररोहों) तथा फलों में छिद्र करता है और छिद्र को मल से बन्द कर देता है। मादा पौधों की पत्तियों, कोमल तनों, फूलों तथा फलों पर पर अलग-अलग १५०-३५० अंडे देती है जो क्रीमी-सफेद रंग के होते हैं। अण्डों के फूटने के बाद निकला कीट का लार्वा निकटतम कोमल शाखा, टहनी अथवा फल पर आक्रमण करता है और उसमें छेद बनाकर प्रवेश कर जाता है। प्रवेश के बाद अंदर ही अंदर कीट की सूंड़ी सुरंग बनाकर प्ररोह तथा फल के मध्य भाग को खाती रहती है। प्रभावित प्ररोह ऊपर से मुरझाकर लटक जाते हैं और आगे चलकर सूख जाते हैं। नव-विकसित फलों में आक्रमण की अधिकता के चलते उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है और वे सूखकर पौधे से अलग हो जाते हैं। विकसित होने वाले फलों में कीट के आक्रमण से विकृति उत्पन्न हो जाती है और फल टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं। पूर्ण विकसित फलों में कीट के आक्रमण के फलस्वरूप द्वितीयक कवकों और जीवाणुओं के प्रवेश के कारण उनमें सड़न प्रारम्भ हो जाती है और फल सड़कर नष्ट हो जाते हैं। प्ररोहों के सूखकर नष्ट हो जाने के कारण न केवल पौधे की वृद्धि बल्कि उसका समग्र विकास प्रभावित होता है जिसका सीधा असर उसकी उत्पादकता पर पड़ता है। आक्रांत प्ररोहों पर आने वाले फूल मुरझा जाते हैं तथा उनमें फलों का निर्माण नहीं होता। पौधे से प्राप्त होने वाले फलों का आकार, उनका भार तथा प्रति पौधा फलों की संख्या काफी घट जाती है। इस प्रकार किसान को दोहरा नुकसान उठाना पड़ जाता है। हालाँकि कीट द्वारा नष्ट प्ररोहों के स्थान पर नए प्ररोह आते हैं किन्तु इससे फसल की परिपक्वता अवधि बढ़ जाती है। इसके अलावा नए प्ररोहों पर भी कीट के आक्रमण की संभावना भी बनी रहती है। खेत में पौधों के प्ररोहों का मुरझाकर लटक जाना इस कीट की उपस्थिति और इसके प्रकोप का प्रमुख लक्षण है।
कीट के प्रबंधन की तकनीक:
१. चूँकि कीट स्वभाव से एकभक्षी अथवा मोनोफैगस होता है, यानि सामान्यतः बैंगन के पौधे से अपना भोजन प्राप्त करता है अतः फसल-चक्र का पालन इस कीट के प्रबंधन की एक अत्यंत सुगम एवं सुरक्षित विधि है।
२. बैंगन की कीट-प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग सर्वाधिक संतोषप्रद विधि है। इसके लिए प्रतिरोधी प्रजातियों में अण्णासलाई, पूसा पर्पल राउंड आदि शामिल हैं।
३. ऐसे पौधों अथवा फसलों के साथ बैंगन की अंतर्फसली  खेती, जिनसे प्राकृतिक आवास की गुणवत्ता में सुधार होता हो (जैसे मक्का, धनिया तथा लोबिया आदि) इस कीट के प्रबंधन में सहायक सिद्ध होती है। खेत में इन फसलों के पौधों की मौजूदगी से फसलों के शत्रुकीटों के प्राकृतिक शत्रुओं अथवा कृषि के मित्रजीवों (जैसे मकड़ियां, लेसविंग्स तथा लेडीबर्ड बीटल) की संख्या में निरंतर वृद्धि होती है जिससे शत्रुकीटों की संख्या पर दीर्घकालिक रूप से प्रभावी नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता  है।
४. आक्रांत पौधे से प्रभावित प्ररोहों, फलों तथा अन्य भागों का खेत से बाहर ले जाकर उन्मूलन कीट को खेत में स्थापित होने से रोकता है। इससे कीट की संख्यावृद्धि अप्रत्याशित रूप से नहीं होने पाती और फसल की अवधि में होने वाली संभावित हानि की मात्रा में कमी की जा सकती है। पौध अवशेषों पर ही कीट के लार्वा अपनी उत्तरजीविता सुनिश्चित करने के लिए प्यूपा में परिवर्तित होते हैं, जिसे खेत में साफ-सफाई के द्वारा रोका जा सकता है। इसके लिए अभियान चलाना कीट प्रबंधन का कारगर उपाय है। आक्रांत पौधे के प्रभावित भागों को पौधे से अलग करके खेत से दूर ले जाकर नष्ट कर देना चाहिए अथवा उनकी कम्पोस्टिंग कर देनी चाहिए।
४. फेरोमोन ट्रैप के प्रयोग द्वारा कीटों को सामूहिक रूप से फंसाकर उनको प्रजनन से रोका जा सकता है। इसके लिए अल्पमोली जल नालिका का प्रयोग किया जा सकता है। ट्रैप की संख्या प्रति एकड़ ४० से ६० के बीच रखी जानी चाहिए। ये ट्रैप केवल नर कीटों को ही फंसाते हैं और नर कीटों की संख्या घट  जाने से मादा कीटों के अण्डों का निषेचन बाधित होता है जिससे कीट की संख्यावृद्धि पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा कीट के वयस्कों को सामूहिक रूप से मारने के लिए प्रति हेक्टेयर १ अथवा इससे अधिक प्रकाश-प्रपंचों का भी प्रयोग किया जा सकता है।
५. जून के अंत तक पौधों की रोपाई कर देने से कीट का प्रकोप कम पाया गया है। रोपाई के पूर्व पौधों की जड़ों को इमिडाक्लोप्रिड नामक रसायन के ०.१ प्रतिशत घोल (१ मिली रसायन प्रति लीटर पानी की दर से) में ३ घंटों तक डुबोकर रखना चाहिए।
६. रोपाई के ३० दिन बाद २५० किग्रा नीम की खली प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में प्रयोग करना चाहिए। रोपाई के १० दिनों के बाद कार्बोफुरान ३जी की ३० किग्रा मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलानी चाहिए।
७. फसल की रोपाई के एक महीने बाद से प्रारम्भ करके  प्रति पखवाड़ा (१५ दिनों के अंतराल पर) निम्नलिखित रसायनों का अदल-बदल कर खड़ी  फसल में छिड़काव करना चाहिए:
  • एज़ाडिरेक्टिन ०.०३ प्रतिशत
  • नीम आयल ०.२ प्रतिशत (२ मिली प्रति लीटर पानी में  घोल बनाकर)
  • नीम गिरी का सत ५ प्रतिशत
  • प्रोफेनफोस ०.०५ प्रतिशत
  • क्विनॉलफॉस ०.२ प्रतिशत (२ मिली प्रति लीटर पानी में  घोल बनाकर)   
  • कार्बरिल ५० डब्ल्यू पी २ ग्राम प्रति लीटर पानी में  घोल बनाकर

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