Sunday 11 June 2017

अरहर की फसल में वंध्य चित्रवर्ण रोग का प्रबन्धन

               अरहर की फसल में वंध्य चित्रवर्ण रोग का प्रबन्धन
                         
           अरहर विश्व की छठी सबसे महत्त्वपूर्ण फसल है और इसकी खेती पचास लाख हेक्टेयर से भी अधिक क्षेत्रफल में की जाती है। इनमें एशिया तथा अफ्रीका महाद्वीप के छोटे जोत वाले किसान सम्मिलित हैं। यह भारतवर्ष की प्रमुख दलहनी फसल है जिसकी खेती खरीफ के मौसम में की जाती है। यह एक बहुउद्देशीय खाद्य दलहन है जिसे भारतीय प्रायद्वीप के सभी शुष्क क्षेत्रों में प्रमुखता से उगाया जाता है। दक्षिण एशिया के देशों में, जहाँ की अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी है, यह प्रोटीन का प्रमुख स्रोत है तथा इन देशों में इसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि संपूर्ण विश्व के 90 प्रतिशत अरहर की खेती दक्षिण एशिया में की जाती है। इसकी खेती के प्रमाण कम से कम 3500 वर्ष पूर्व से मिलते हैं तथा इसकी उत्पत्ति का स्थान भारतीय प्रायद्वीप माना जाता है जहाँ के पतझड़ वाले वनों में इसकी अनेक जंगली प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

          मानव पोषण एवं खाद्य सुरक्षा में इसके महत्त्व को किसी भी प्रकार से अनदेखा नहीं किया जा सकता। जहाँ तक अरहर के पोषण मान का प्रश्न है, इसके प्रति 100 ग्राम में 343 किलोकैलोरी ऊर्जा होती है। कुल वसा 1.5 ग्राम (कुल दैनिक आवश्यकता का 2 प्रतिशत), कोलेस्टेरॉल शून्य, सोडियम 17 मिग्रा, पोटैशियम 1392 मिग्रा (कुल दैनिक आवश्यकता का 39 प्रतिशत), कुल कार्बोहाइड्रेट 63 ग्राम (कुल दैनिक आवश्यकता का 21 प्रतिशत), खाद्य रेशा 15 ग्राम (कुल दैनिक आवश्यकता का 60 प्रतिशत), प्रोटीन 22 ग्राम (कुल दैनिक आवश्यकता का 44 प्रतिशत), कैल्शियम 13 प्रतिशत, लौह तत्त्व 28 प्रतिशत, विटामिन बी-6 15 प्रतिशत तथा मैग्नीशियम 45 प्रतिशत होता है। इसके पोषण मान का विश्लेषण करें तो प्रोटीन की प्रचुरता के अतिरिक्त न्यून वसा, कोलेस्टेरॉल रहित, सोडियम की कमी तथा पोटैशियम की प्रचुरता इसे हृदय रोग के प्रति शरीर को मजबूत बनाने के लिए उत्तम विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करती है। खाद्य रेशे की प्रचुरता पाचन तंत्र को सुदृढ़ करने में सहायक होती है तथा इसे कब्ज़ रोगियों के लिए लाभदायक बनाती है। इसके अतिरिक्त अरहर में विटामिन बी-6, मैग्नीशियम, लौह तत्त्व तथा कैल्शियम भी पाए जाते हैं जो मानव पोषण में इसके महत्त्व को रेखांकित करते हैं।

          अरहर की खेती में विभिन्न अन्य बाधाओं के अतिरिक्त वंध्यता चित्रवर्ण (स्टेरिलिटी मोज़ैक डिज़ीज़ अथवा एसएमडी) एक प्रमुख समस्या है जिसे ‘‘हरित प्लेग (Green Plague)’’ के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग को दिए गए नाम ‘‘हरित प्लेग’’ से ही अरहर की फसल में इस रोग की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है। यह रोग एक विषाणु के कारण होता है जो इसके प्रबन्धन को और भी दुरूह बनाता है। प्रस्तुत लेख में इस महत्त्वपूर्ण रोग के विषय में कुछ आवश्यक जानकारी दी गई है जिसका लाभ निश्चित ही कृषक बन्धुओं को मिल सकेगा, ऐसी अपेक्षा की जाती है।
 
                                                                     रोग के लक्षणः
          रोगग्रस्त पौधे आकार में छोटे रह जाते हैं तथा देखने में वे झाड़ीनुमा दिखाई पड़ते हैं। संक्रमित पौधे अन्य पौधों से अलग हल्के हरे रंग के दिखाई देते हैं। रोगी पौधों की पत्तियों पर हल्के हरे से साधारण हरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं जो अनियमित आकार के दिखाई देते हैं। रोग से प्रभावित पौधे की पत्तियाँ छोटी रह जातीं हैं तथा उन पर हरिमाहीनता वाले वलय अथवा चित्रवर्ण (मोजैक) के लक्षण प्रकट होते हैं। इस प्रकार, रोगी पौधों के झुंड को खेत में दूर से ही देखकर पहचाना जा सकता है। खेत में रोग की उपस्थिति तथा इसके प्रसार का प्रमाण इस बात से लगाया जा सकता है कि रोगी पौधों का समूह खेत में जगह-जगह हल्का पीलापन लिए हुए हरिमाहीन चकत्तों के रूप में दिखाई देता है। इन पौधों पर फूल तथा फलियाँ नहीं आतीं तथा देखने में ये झाड़ीनुमा दिखाई देते हैं। रोगी पौधे फसल की अवधि पूर्ण हो जाने पर भी हरे दिखाई देते हैं। हालाँकि रोग से प्रभावित पौधों में वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है किन्तु इनसे प्राप्त होने वाला उत्पादन लगभग शून्य होता है। रोग का प्रभाव कभी-कभी आंशिक  भी होता है जिसमें पौधे के कुछ भाग तो रोग के लक्षण प्रकट करते हैं किन्तु शेष भाग स्वस्थ रहते हैं और इन स्वस्थ भागों से उत्पादन भी प्राप्त होता है। फसल की प्रजाति के अनुसार रोग के लक्षण निम्नलिखित तीन प्रकार के हो सकते हैंः

क. तीव्र चित्रवर्ण तथा वंध्यता
ख. हल्का (मृदु) चित्रवर्ण तथा आंशिक वंध्यता
ग. हरिमाहीन वृत्ताकार धब्बे तथा अस्पष्ट/न्यूनतम वंध्यता

                                                                          रोग का कारकः
          अरहर के वंध्यता चित्रवर्ण रोग का कारक एक पादप विषाणु है जिसे पिजनपी स्टेरिलिटी मोजैक वायरस (पीपीएसएमवी) के नाम से जाना जाता है। जो थोड़ा-बहुत जीव विज्ञान की समझ रखते हैं उनकी जानकारी के लिए इस विषाणु के कण पतले तथा अत्यधिक लचीले विषाणु सदृश कण (वायरस लाइक पार्टिकल्ज़-वीपीएलएस) होते हैं। इनका व्यास 3 से 10 नैनोमीटर होता है तथा इस विषाणु का आवरण प्रोटीन 32 किलोडाल्टन की होती है। इसमें 0.8 से 6.8 केबी की एकसूत्रीय पाँच से सात प्रमुख रिबोन्यूक्लिक अम्ल की प्रजातियाँ पाई जातीं हैं।

          रोगी पौधों से स्वस्थ पौधों तक विषाणु का प्रसार अथवा संचरण अरहर की चींचड़ी अथवा माइट के द्वारा सम्पन्न होता है जो इस विषाणु को अर्ध-सतत (नॉन-परसिस्टेंट) रीति से संचारित करती है। इस चींचड़ी को एरियोफिड चींचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा इसका जन्तु-वैज्ञानिक नाम ‘एसेरिया कैजेनाई’ है। यह चींचड़ी अत्यन्त सूक्ष्म आकार की होने के कारण प्रायः नंगी आँखों से नहीं देखी जा सकती। यह चींचड़ी पत्तियों की निचली सतह पर नन्हें रोमों के मध्य पत्ती की सतह से चिपककर रस चूसती है तथा रस चूषण के दौरान ही रोगी पौधों से विषाणु को ग्रहण करती है और इसी प्रक्रिया के द्वारा ग्रहण किए गए विषाणु को स्वस्थ पौधों में संचारित भी करती है। इसके शिशु तथा वयस्क, दोनों ही विषाणु का संचार कर सकने में सक्षम होते हैं। रोगकारक विषाणु की भाँति यह चींचड़ी भी स्वभाव में अत्यन्त विशिष्ट होती है तथा केवल अरहर तथा इसकी वन्य प्रजातियों पर ही पाई जाती है। परीक्षणों में पाया गया कि विषाणु के शुद्धीकृत कण अरहर के पौधों में रोग नहीं उत्पन्न कर सके। इससे रोग के उत्पन्न किए जाने में चींचड़ी का अपना महत्त्व सिद्ध होता है। यह विषाणु बीज-जनित नहीं है तथा उत्तरजीविता के लिए संभवतः अरहर की वन्य अथवा अकृषित प्रजातियों एवं पौधों का उपयोग करता है। चूँकि क्षेत्र और पौधे के अनुसार रोग की तीव्रता तथा इसके लक्षणों में परिवर्तन देखा जाता है अतः इस बात की संभावना बनती है कि रोगकारक विषाणु की अनेक प्रजातियाँ पाई जातीं हैं।

                                                                  रोग का प्रबन्धनः
          रोग के प्रबन्धन के लिए खेत की साफ-सफाई तथा खरपतवारों का उन्मूलन सबसे प्राथमिक शर्त है क्योंकि रोगजनक विषाणु की उत्तरजीविता इन्हीं पर संभव होती है। इसलिए रोगी पौधों को खेत से अविलम्ब निकाल फेंकना चाहिए। अरहर के साथ अन्य दलहनी फसलों का फसल चक्र अपनाने से रोग के संचारी कीट के नियंत्रण में सहायता मिलती है। हालाँकि अरहर के साथ मोटे अनाजों जैसे ज्वार, बाजरा तथा मक्का आदि की खेती करने से रोग के प्रकोप में वृद्धि देखी गई है क्योंकि इन अर्न्तकृषित फसलों से खेत में छाया तथा नमी की मात्रा में वृद्धि होती है जो रोग के संचारी कीट एरियोफिड चींचड़ी के जीवन तथा संख्यावृद्धि में सहायक होती है।
रोगरोधी प्रजातियों का प्रयोग संभवतः रोग के प्रबन्धन के लिए सर्वाधिक कारगर एवं प्रभावी विकल्प है। इसके लिए आशा (आईसीपीएल-87119), नरेन्द्र अरहर-1 (एनडीए-88-2), अमर (केए 32-1), आजाद (के 91-25), वैशाली (बीएसएमआर-853), शरद (डीए 11), बीएसएमआर-736, एनडीए-2 तथा बीएसएमआर-175 रोग प्रतिरोधी, मालवीय चमत्कार (एमएएल-13), विपुला, जवाहर (जेकेएम-189), तथा अमोल (बीडीएन 708), बीडीएन 711 मध्यम प्रतिरोधी एवं गुजरात तुर-100, पूसा-9, पूसा-991, पूसा-992, जीटी-101, टीजेटी 501, बीआरजी 2 तथा जेए-4 सहिष्णु प्रजातियाँ हैं। अन्य उपयुक्त प्रजातियों में आईसीपी 7035, वीआर 3, पर्पल 1, डीए 32, आईसीपी 6997, बहार, बीएसएमआर 235, आईसीपी 7198, पीआर 5149, आईसीपी 8861 तथा भवानीसागर 1 आदि सम्मिलित हैं।
          रासायनिक प्रबन्धन के लिए चींचड़ीनाशी रसायनों का प्रयोग भी कुछ सीमा तक लाभकारी सिद्ध हुआ है किन्तु उपरोक्त उपायों के अभाव में यह सर्वथा अप्रभावी होता है। इसके लिए उपयुक्त चींचड़ीनाशी  रसायन यथा डाइकोफॉल के 0.1 प्रतिशत जलीय घोल का छिड़काव करना चाहिए। इसके अभाव में मोनोक्रोटोफॉस की 500मिली मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से भी प्रयोग किया जा सकता है।

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