Monday 12 June 2017

दलहनी फसलों में रोग प्रबन्धन

                    दलहनी फसलों में रोग प्रबन्धन

               प्रोटीन की अधिक मात्रा के साथ-साथ दलहनी फसलें नत्रजन की प्रचुरता के लिए जानी जातीं हैं। संभवतः इसी कारण इन फसलों पर रोगों तथा शत्रुकीटों का प्रकोप अधिक होता है। इन फसलों पर रोग उत्पन्न करने वाले जैविक कारकों में कवक अथवा फफूँद, जीवाणु, विषाणु तथा सूत्रकृमि प्रमुख हैं। इनके अलावा पुष्पी  पादप परजीवी भी इन फसलों को प्रभावित करते हैं। दलहनी फसलें रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील होतीं हैं तथा इनमें रोगों द्वारा होने वाली हानि भी अपेक्षाकृत अधिक होती है। इनके बीजों से स्रावित होने वाले पदार्थों में पादप रोगजनकों को आकर्षित करने वाले तत्त्वों की प्रधानता होती है जिसके कारण इन फसलों में लगने वाले रोगों की गंभीरता में भी वृद्धि होती है। ये रोगजनक विभिन्न दलहनी फसलों में पौध गलन, मूल विगलन, उकठा तथा पर्णधब्बे जैसे रोग उत्पन्न करते हैं। इन रोगों के कारण दलहनी फसलों की उत्पादकता में काफी कमी आ जाती है और किसान को उसकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। प्रस्तुत लेख में प्रमुख दलहनी फसलों के महत्त्वपूर्ण रोगों के बारे में चर्चा की गई है जो किसान बन्धुओं के लिए हितकर होगी।

१. चूर्णिल आसिता अथवा भभूतिया रोगः
               यह रोग कवक अथवा फफूँद के द्वारा होता है जिसका नाम एरिसाइफी पाइसाइ (पॉलीगोनी) है। मटर के अलावा यह रोग उड़द तथा मूँग पर भी पाया जाता है। इसके लक्षण पौधे के सभी वायवीय भागों पर आते हैं तथा प्रभावित अंगों पर धब्बे बनते हैं जिनमें सफेद रंग का चूर्ण बिखरा हुआ दिखाई देता है जो बाद में चलकर भूरे-काले रंग में बदल जाता है। कई छोटे धब्बे आपस में मिलकर बड़े धब्बों का निर्माण करते हैं जिससे पौधे के प्रभावित भाग झुलस जाते हैं तथा पत्तियों का अधिकांश भाग धब्बों के कारण प्रकाश-संश्लेषण नहीं कर पाता जिससे पौधे का पोषण प्रभावित होता है और पौधा अपनी पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं दे पाता। पत्तियों के अलावा रोग के लक्षण पौधे के कोमल तनों तथा प्रतानों पर भी पाए जाते हैं।

               रोगजनक कवक मिट्टी में दबे पौधे के संक्रमित भागों पर जीवित रहता है। अतः खेत की साफ-सफाई रोग प्रबन्धन की दिशा में पहला कारगर उपाय है। इसके अलावा रोग प्रतिरोधी प्रजातियों की बुआई करके भी रोग के द्वारा होने वाली हानि को कम किया जा सकता है। मूँग तथा उड़द की अगेती किस्मों पर इस रोग का प्रकोप कम होता है। मूँग की टीएआरएम-1, टीएम-96-2, टीजेएम-3 प्रजातियाँ इस रोग के लिए रोग प्रतिरोधी, कामदेवा (ओयूएम 11-5), गंगा-1 (एमएच-96-1), बीएम-2002-1, केकेएम-3, वीबीएन (जीजी) 3 मध्यम प्रतिरोधी तथा बीएम-4, जेएम-721, पीडीएम-84-178, पीकेवीएकेएम 4 (एकेएम 9904), पीकेवी ग्रीन गोल्ड तथा पूसा-9072 प्रजाति इस रोग के लिए सहिष्णु है। उर्द की प्रजातियों में डब्ल्यूबीजी-26, माश 479 (केयूजी 479) तथा सीओ 6 (सीओबीजी 653), माश 391 (एलयू 391), वीबीएन (बीजी) 7 (वीबीजी 04-008) चूर्णिल आसिता रोग के लिए प्रतिरोधी है। इसकी गुजरात-1 तथा यूपीयू 00-31 (हिमाचल माश 1) प्रजातियाँ मध्यम प्रतिरोधी तथा एकेयू-15 इस रोग के लिए सहिष्णु है। मटर की प्रजातियों में जेपी-885, केएफपी-103 (शिखा), डीएमआर-7 (अलंकार), एचएफपी-8909 (उत्तरा), सपना, स्वाति, जयंती, मालवीय मटर-15, पूसा प्रभात, अम्बिका, पूसा पन्ना, शुभ्रा, जय (केपीएमआर-522), आदर्श, विकास, प्रकाश, पारस, पन्त मटर-14, वीएल मटर-42, पन्त मटर-25, एचएफपी-9426 आदि चूर्णिल आसिता रोग के लिए प्रतिरोधी हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए रासायनिक उपाय भी किए जा सकते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए उपलब्ध रसायनों में सल्फेक्स का 0.3 प्रतिशत, केराथेन, कैलिक्सिन अथवा कार्बेण्डाजिम के 0.1 प्रतिशत जलीय घोल का छिड़काव किया जा सकता है।

२. पीला चित्रवर्ण (मोजैक) रोगः
               मूँग तथा उड़द का यह प्रमुख रोग विषाणुओं के कारण होता है जिनका संचार सफेद मक्खियों द्वारा किया जाता है। ये मक्खियाँ रोगी पौधों से रस चूसने के दौरान विषाणुओं को ग्रहण कर लेतीं हैं तथा उन्हें स्वस्थ पौधों में रस चूषण के दौरान संचारित कर देतीं हैं। यह रोग मूँग तथा उड़द उगाने वाले सभी क्षेत्रों में व्यापक रूप से पाया जाता है जिसके कारण फसल को अत्यधिक हानि पहुँचती है। फसल की प्रारंभिक अवस्था में रोग का संक्रमण हो जाने पर फसल को सर्वाधिक हानि पहुँचती है।

               रोग के लक्षण फसल की प्रारंभिक अवस्था में बीजों के अंकुरण के 1-2 सप्ताह बाद दिखाई देने प्रारंभ होते हैं। रोग के प्रारंभिक लक्षण सबसे ऊपरी पत्ती पर पीले-हरे धब्बों के रूप में पाए जाते हैं। संक्रमित पौधों की वृद्धि रुक जाती है तथा उनसे मिलने वाले उत्पादन की मात्रा घट जाती है। संक्रमित पौधों की पत्तियों पर अनियमित आकार के हल्के पीले रंग के चकत्ते दिखाई देते हैं। ये चकत्ते आपस में मिलकर बड़े चकत्तों का निर्माण करते हैं जिसके चलते ये चकत्ते शीघ्र ही पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं। बाद में चलकर संक्रमित पत्तियाँ पूरी पीली हो जातीं हैं तथा पौधों का रूप-रंग बदल जाता है। रोगजनक संक्रमित पौधों के अलावा संक्रमित खरपतवारों तथा अन्य दलहनी फसलों पर उत्तरजीवी रहता है। इसके लिए खेत की साफ-सफाई तथा खरपतवारों का नियंत्रण रोग के प्रबन्धन के लिए महत्त्वपूर्ण है। रोग प्रतिरोधी प्रजातियों की बुआई करनी चाहिए। इस रोग के लिए मूँग की प्रतिरोधी प्रजातियों में एमयूएम-2, एमएल-613, पन्त मूँग-4, पूसा-9531, पूसा विशाल, आईपीएम-99-125, सीओसीजी-912, मुस्कान (एमएच-96-1), केएम-2241, स्वाती (केएम-2195) तथा आईपीएम 2-14 प्रमुख हैंउड़द की प्रतिरोधी प्रजातियों में नरेन्द्र उर्द-1, केयू-301, टीयू-94-2, आजाद उर्द-1 (केयू 92-1) उत्तरा (आईपीयू 94-1), शेखर-2 (केयू-300), मैश-479 (केयूजी-479), मैश-114 तथा पन्त उर्द-31 प्रमुख हैं। इसके अलावा रोग प्रबन्धन के लिए रोगी पौधों का सुरक्षित रूप से अविलम्ब उन्मूलन कर देना चाहिए ताकि संचारी कीटों के लिए रोग का निवेशद्रव्य उपलब्ध न हो सके। संचारी कीट-सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए मेटासिस्टॉक्स अथवा डाईमेथोएट के 0.1 प्रतिशत जलीय घोल का छिड़काव नियमित अन्तराल पर करते रहना चाहिए।

३. सर्कोस्पोरा पर्णदागः
               मूँग तथा उड़द का यह रोग एक कवक सर्कोस्पोरा केनेसेन्स के द्वारा उत्पन्न किया जाता है। रोग के लक्षण प्रायः पत्तियों पर ही दिखाई देते हैं। संक्रमित पौधों की पत्तियों पर भूरे रंग के अनियमित आकार के वृत्ताकार धब्बे पाए जाते हैं। ये धब्बे कभी-कभी फलियों पर भी दिखाई देते हैं तथा अनेक छोटे धब्बे आपस में मिलकर बड़े धब्बों का निर्माण करते हैं जिसके कारण पौधे के संक्रमित अंग (पत्तियों अथवा फलियों) का बड़ा भाग रोग की चपेट में आ जाता है। अधिक संक्रमित पत्ती भूरी पड़कर सूख जाती है। रोगजनक कवक पौधे के संक्रमित भागों पर, जो कि फसल की कटाई के उपरांत मिट्टी में गिरकर दब जाते हैं, उत्तरजीवी रहते हैं। वर्षा  अथवा अधिक नमी की दशा में रोग का प्रसार तेजी से होता है।
               
               खरपतवारों का नियंत्रण तथा रोगरोधी प्रजातियों की बुआई, रोग प्रबन्धन के प्रमुख स्तम्भ हैं। इस रोग के लिए मूँग की प्रतिरोधी प्रजातियों में कामदेवा (ओयूएम 11-5), गंगा-1 (जमनोत्री), शालीमार मूँग-1, टीएम-96-2, एसएमएल-668, एमएच-125 तथा केएम-2195 (स्वाती) प्रमुख रूप से सम्मिलित हैं जबकि उड़द की प्रतिरोधी प्रजातियों में बरखा (आरबीयू-38), शेखर-3 (केयू 309) तथा मैश-391 (एलयू-391) उल्लेखनीय हैं। रोग के रासायनिक प्रबन्धन के लिए मैंकोजेब के 0.25 प्रतिशत जलीय घोल का छिड़काव किया जा सकता है।

४. उकठा अथवा म्लानि रोगः
               चने, मसूर तथा तथा अरहर में इस रोग से संभवतः सर्वाधिक हानि होती है। प्रायः संक्रमित पौधे से कोई उत्पादन मिलने की संभावना नहीं रहती और समूचा पौधा बेकार होकर रह जाता है। सामान्य परिस्थितियों में इस रोग द्वारा होने वाली हानि को 10 प्रतिशत तक आँका गया है किन्तु संक्रमण की उग्र दशाओं में होने वाली हानि अधिक होती है। फ्यूजेरियम नामक कवक की विभिन्न प्रजातियाँ इस रोग को उत्पन्न करतीं हैं जो कि खेत की मिट्टी में संक्रमित पौधों की जड़ों (जो पिछले वर्षों में कटाई के उपरान्त खेत की मिट्टी में ही छोड़ दी गईं थीं) में उत्तरजीवी रहता है। रोग के लक्षण फसल की किसी भी अवस्था में देखे जा सकते हैं। चने में रोग के लक्षण सामान्यतया बुआई के तीन सप्ताह के अन्दर ही प्रकट होने लगते हैं। रोगग्रस्त पौधे भूमि पर गिर जाते हैं किन्तु उनका रंग कई दिनों तक हरा ही रहता है। संक्रमित पौधे को उखाड़कर देखने पर भूमि की सतह के पास पौधे के तने का भाग सामान्य से सिंकुड़ा दिखाई देता है। यह सिंकुड़न लम्बाई में तकरीबन एक इंच तक होती है। पौधे की जड़ को लम्बवत् चीरकर देखने पर उसमें संवहनी ऊतकों का विवर्णन साफ दिखाई देता है तथा उनका रंग गहरा भूरा से लेकर काला तक हो जाता है जो जड़ के मध्य भाग में लम्बवत् भूरी-काली धारियों के रूप में स्पष्ट  दिखाई देता है।

               चूँकि रोग स्वभाव में मृदाजनित होता है अतः फसल-चक्र का पालन तथा उचित खेत का चुनाव रोग प्रबन्धन के लिए आवश्यक है। गर्मी के मौसम में खेत की मिट्टी-पलट हल से गहरी जुताई करने से रोगजनक के निवेशद्रव्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा मिट्टी का सुधार करने के लिए खेत की मिट्टी में नीम, मूँगफली अथवा करंज की खली मिलाने से भी रोग की तीव्रता में कमी देखी गई है। रोगरोधी प्रजातियों की बुआई करके रोग द्वारा होने वाले नुकसान को काफी सीमा तक कम किया जा सकता है। उकठा के लिए रोगरोधी प्रजातियों में चने के लिए जीजेजी 0809, एचके 4 (एचके 05-169), राज विजय चना 201 (जेएससी 40), बीजीडी 103, जेजी 6 तथा जाकी 9218 जैसी प्रजातियों का चुनाव किया जा सकता है तथा अरहर के लिए टीएस-3आर, जवाहर (जेकेएम-189), विपुला, वीएल अरहर-1, वैशाली (बीएसएमआर-853) तथा आजाद (के 91-25) उल्लेखनीय प्रजातियाँ हैंगर्मी की ज्वार की फसल उकठा रोग के प्रबन्धन में सहायक होती है। अरहर के साथ ज्वार की मिलवाँ खेती तथा चने की पूर्ववर्ती फसल के रूप में ज्वार की खेती रोग प्रबन्धन में कारगर सिद्ध होती है। ज्वार की जड़ों से स्रावित होने वाला हाइड्रोसायनिक अम्ल अपने विषाक्त प्रभाव के कारण रोगजनक कवक की संख्या को कम कर देता है। बीजों का उपचार रोग प्रबन्धन की प्राथमिक शर्त है। बीजों को जैविक अभिकर्मक ट्राइकोडर्मा की 8 से 10 ग्राम मात्रा से प्रति किग्रा बीज का उपचार करना चाहिए। रासायनिक बीज उपचार के लिए थिरम (2ग्राम) तथा कार्बेण्डाजिम (1 ग्राम) के मिश्रण से प्रति किग्रा बीज का उपचार किया जा सकता है।

५. शुष्क मूल विगलन अथवा सूखा जड़ सड़न रोगः
               चने का यह रोग राइजोक्टोनिया बटाटिकोला नामक कवक के द्वारा होता है। यह रोग लगभग सभी चना उगाने वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। रोग की तीव्रता पौधे की आयु के साथ-साथ बढ़ती जाती है। रोग के लक्षण पौधों के विभिन्न अंगों की म्लानि अथवा सूखने के रूप में प्रकट होते हैं। संक्रमित पौधे के ऊपरी भाग की पत्तियाँ तथा उनके पर्णवृन्त मुरझाने लगते हैं तथा कुछ समय बाद पीले पड़कर सूख जाते हैं। निचली पत्तियाँ तथा तना सूखकर भूरे रंग के हो जाते हैं तथा कुछ समय बाद समूचा पौधा सूख जाता है। इस प्रकार सूखे पौधों को सूखी मिट्टी में से उखाड़ने पर मुख्य जड़ मिट्टी में ही रह जाती है तथा ऊपर का भाग टूटकर अलग हो जाता है। मिट्टी में रह गई जड़ को निकालकर देखने पर उसमें पार्श्व व पतली जड़ें नहीं दिखाई देतीं तथा मुख्य जड़ भूरे रंग की होकर सड़न के लक्षण प्रदर्शित करती है। मुख्य जड़ भंगुर हो जाती है तथा उसकी छाल अलग होने लगती है। इस प्रकार जड़ का कुछ भाग खुल जाने से उस पर काले रंग के अत्यन्त छोटे बिन्दु दिखाई देते हैं। ये रोगजनक कवक की कठोर रचनाएँ होतीं हैं जो उत्तरजीविता के लिए निर्मित की जातीं हैं।

               रोग के प्रबन्धन के लिए गर्मी के मौसम में खेत की मिट्टी-पलट हल से गहरी जुताई करनी चाहिए। इससे रोगजनक की सुषुप्त संरचनाएँ तेज धूप के सम्पर्क में आकर नष्ट हो जातीं हैं। रोग के लिए प्रतिरोधी किस्मों का चुनाव करना चाहिए। चने की सीएसजे 515, भारती (आईसीसीवी-10), आलोक (केजीडी-1168), धारवाड़ प्रगति (बीजीडी 72), क्रान्ति (आईसीसीसी-37), पूसा 1088, पूसा 1103, हरियाणा काबुली चना-2 (एचके 94134) तथा जेजी-63 प्रजाति इस रोग के लिए प्रतिरोधी है जबकि जेजी-11, पन्त जी-10 (डब्ल्यूसीजी-10), अनुभव (आरसीजी 888) पूसा 1105, आशा (आरएसजी 945), अर्पिता (आरएसजी-895), आधार (आरएसजी 963), आभा (आरएसजी-807) इस रोग के लिए मध्यम प्रतिरोधी तथा सूर्या (डब्ल्यूसीजी-2) तथा गौरी (जीएनजी 421) इस रोग के प्रति सहिष्णु प्रजातियाँ हैं। रोग की तीव्रता पर नियंत्रण के लिए खड़ी फसल में अत्यधिक सूखे की स्थिति उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए। फसल चक्र का पालन करने से रोगजनक मिट्टी में स्थापित नहीं होने पाता है और रोग का प्रकोप कम होता है।

६. एस्कोकाइटा अंगमारीः
               चने का यह रोग भी एक कवक अथवा फफूँद के कारण होता है जिसका नाम एस्कोकाइटा है। इसके लक्षण तना विगलन के रूप में गहरे भूरे विक्षतों के प्रकट होने से प्रारंभ होते हैं। अनुकूल मौसम में ये विक्षत नीचे जड़ की ओर तथा ऊपर तने की ओर बढ़ते जाते हैं। संक्रमित वयस्क पौधे के तने के चारों ओर का भाग काला बदरंग हो जाता है और गंभीर रूप से संक्रमित पौधे की मृत्यु हो जाती है। रोग की चित्तियाँ पौधे के पत्तियों के अलावा तनों और फलियों पर भी पाई जातीं हैं। फलियों पर पाई जाने वाली चित्तियों में संकेन्द्रिक वलय दिखाई देते हैं। रोगजनक कवक संक्रमित पौध-अवशेषों पर जीवित रहता है तथा मृदा में दबे संक्रमित पौध अवशेषों से प्राथमिक निवेशद्रव्य प्राप्त होता है।

               रोग के प्रबन्धन के लिए खेत की साफ-सफाई तथा खरपतवारों एवं संक्रमित पौध-अवशेषों का खेत से उन्मूलन अत्यन्त आवश्यक है। फसल-चक्र का पालन करने से रोगजनक मृदा में स्थापित नहीं होने पाता है और रोग की तीव्रता में कमी आती है। रोग प्रतिरोधी प्रजातियों की बुआई करने से रोग द्वारा होने वाली हानि को कम किया जा सकता है। इसके लिए चने की सम्राट (जीएनजी-469) तथा पीबीजी 5 प्रजाति रोग-प्रतिरोधी, सीएसजे 515, जीजेजी 809, हिमाचल चना-2 (एचके-94-134), जीपीएफ-2 (जीएफ-89-36) तथा जीएलके 28127 प्रजाति सहिष्णु पाई गई है। बीजों का उपचार रोग के प्रबन्धन में काफी सीमा तक कारगर सिद्ध हुआ है। इसके लिए बीजों को थिरम की 2.5 ग्राम मात्रा से प्रति किग्रा बीज का उपचार करना चाहिए।

७. फाइटॉफ्थोरा अंगमारीः
               यह रोग भी फाइटॉफ्थोरा ड्रेक्स्लेरी कैजेनाइ नामक कवक से होता है और अरहर की फसल का प्रमुख रोग है। इसका आक्रमण 1 से 7 सप्ताह की आयु वाले पौधों पर अधिक होता है तथा शीघ्र पकने वाली प्रजातियों में इसका प्रकोप तेज होता है। ऐसे खेत जहाँ समुचित जल-निकास की व्यवस्था नहीं होती, उनमें यह रोग  अधिक तीव्र रूप में प्रकट होता है। रोग के लक्षण पौधों की पत्तियों पर पनीले धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं। संक्रमित पौधे के तनों पर रोग के लक्षण कॉलर (स्तम्भ-मूल संधि) क्षेत्र के पास पाए जाते हैं। ये लक्षण दबे हुए भूरे रंग के विक्षतों के रूप में होते हैं। रोगग्रस्त पत्तियों में पानी की कमी हो जाती है जिससे वे मुरझा जातीं हैं। तनों पर पाए जाने वाले भूरे रंग के विक्षत तने को चारों ओर से घेर लेते हैं जिससे उस स्थान पर तना कमजोर हो जाता है और पौध का भार न सँभाल पाने के कारण टूट जाता है। रोगजनक कवक संक्रमित पौध अवशेषों पर जीवित रहता है तथा नई फसल पर संक्रमण के लिए निवेशद्रव्य यहीं से उपलब्ध होता है। वातावरण में नमी, आकाश में बादलों की उपस्थिति, हल्की बूँदाबादी की परिस्थिति में रोग का प्रकोप तीव्र होता है।

               रोग के प्रबन्धन के लिए खेत की साफ-सफाई और खरपतवारों का उन्मूलन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जल-निकास का उचित प्रबन्ध तथा नमी एवं आर्द्रता का नियंत्रण रोग के प्रबन्धन की कुंजी है। इसके लिए अरहर की मेंड़ों पर बुआई अत्यन्त कारगर सिद्ध हुई है। खेत में अन्तर्कृषि क्रियाओं को करते समय पौधों के तनों को चोट से बचाना चाहिए। फसल-चक्र का पालन करने से भी रोग की तीव्रता पर नियंत्रण किया जा सकता है। इसके लिए कम से कम 3 से 4 वर्ष का फसल चक्र अपनाना चाहिए। जवाहर (केएम-7) इस रोग के लिए सहिष्णु  प्रजाति है जिसमें रोग द्वारा होने वाली हानि सीमित होती है। बुआई के पूर्व बीजों का उपचार मेटालैक्ज़िल नामक कवकनाशी से 3 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से करना चाहिए। फसल की बुआई के समय पौधे से पौधे तथा पंक्तियों से पंक्तियों की दूरी संस्तुत से अधिक नहीं रखनी चाहिए। खड़ी फसल में छिड़काव के लिए मैंकोजेब, कॉपर ऑक्सीक्लोराइड आदि कवकनाशियों में से किसी एक के 0.25 प्रतिशत जलीय घोल का प्रयोग करना चाहिए।

८. वंध्य चित्रवर्ण अथवा वंध्यता मोजैक (स्टेरिलिटी मोजैक) रोगः
               यह अरहर का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रोग है जिसका प्रकोप अरहर उगाने वाले सभी क्षेत्रों में प्रमुखता से होता है। इसका रोगजनक एक विषाणु होता है जिसका संचारी कीट एक चींचड़ी-एरियोफिड माइट (एसेरिया कैजेनाइ) होती है। यह चींचड़ी आकार में अत्यन्त छोटी होती है तथा इसे नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता है। इसका रंग पीला अथवा नारंगी होता है। यह पत्तियों की निचली सतह पर छोटे-छोटे रोमों के बीच में चिपकी होती है तथा पत्तियों से रस चूसती रहती है। इसके शिशु तथा वयस्क, दोनों ही विषाणु का संचार कर सकने में सक्षम होते हैं। रोग के लक्षण पौधों पर देर से प्रकट होते हैं। संक्रमित पौधे अन्य पौधों से अलग हल्के हरे रंग के दिखाई देते हैं। रोगी पौधों की पत्तियों पर हल्के हरे से साधारण हरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं जो अनियमित आकार के दिखाई देते हैं। संक्रमित पौधों में फूल तथा फलियाँ नहीं आतीं हैं, पौधे झाड़ीनुमा हो जाते हैं तथा आकार में सामान्य से छोटे रह जाते हैं। रोगी पौधे फसल की अवधि पूर्ण हो जाने पर भी हरे दिखाई देते हैं। रोगजनक विषाणु संक्रमित पौधों तथा अरहर की जंगली प्रजातियों पर जीवित रहता है। खेत में मुख्य फसल के आते ही संचारी कीटों द्वारा इनका संचारण फसल पर कर दिया जाता है।

               रोग के प्रबन्धन के लिए खेत की साफ-सफाई तथा खरपतवारों का उन्मूलन आवशयक है क्योंकि रोगजनक विषाणु की उत्तरजीविता इन्हीं पर संभव होती है। रोगी पौधों को खेत से अविलम्ब निकाल फेंकना चाहिए। अरहर के साथ अन्य दलहनी फसलों का फसल चक्र अपनाने से रोग के संचारी कीट के नियंत्रण में सहायता मिलती है। रोग प्रतिरोधी प्रजातियों की बुआई करनी चाहिए। इसके लिए आशा (आईसीपीएल-87119), नरेन्द्र अरहर-1 (एनडीए-88-2), अमर (केए 32-1), आजाद (के 91-25), वैशाली (बीएसएमआर-853), शरद  (डीए 11), बीएसएमआर-736, एनडीए-2 तथा बीएसएमआर-175 रोग प्रतिरोधी, मालवीय चमत्कार (एमएएल-13), विपुला, जवाहर (जेकेएम-189), तथा अमोल (बीडीएन 708), बीडीएन 711 मध्यम प्रतिरोधी एवं गुजरात तुर-100, पूसा-9, पूसा-991, पूसा-992, जीटी-101, टीजेटी 501, बीआरजी 2 तथा जेए-4 सहिष्णु  प्रजातियाँ हैं।

                आशा है, इस लेख में प्रस्तुत सूचना दलहन के किसानों के लिए लाभप्रद होगी और वे अपनी मूल्यवान फसल को रोगों तथा व्याधियों से बचाते हुए इससे समुचित लाभ प्राप्त कर सकेंगे।

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