Monday 1 August 2016

भिंडी में समन्वित रोग प्रबन्धन के उपाय

भिंडी में समन्वित रोग प्रबन्धन के उपाय

डॉ. जय पी. राय 
असिस्टेंट प्रोफेसर एवं फसल सुरक्षा वैज्ञानिक
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-कृषि विज्ञान केन्द्र,
बरकछा, मीरजापुर-२३१००१


        भारतवर्ष विश्व में सब्ज़ी उत्पादन के क्षेत्र में प्रमुख स्थान रखता है। भारतीय कृषि का एक चौथाई भाग औद्यानिक फसलों के अन्तर्गत आता है जिसमें सब्ज़ियों का एक अहम स्थान है। सब्ज़ियों का मानव पोषण में महत्व किसी से छिपा नहीं है, और स्वास्थ्य में सुधार के लिए पोषण के स्तर में उन्नयन होना आवश्यक है। भिंडी भारतवर्ष की प्रमुख सब्ज़ी फसल है जिसकी खेती असम, उत्तर प्रदेष, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश तथा कर्नाटक समेत लगभग सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है। अपने उच्च पोषण मान के कारण भिंडी का सेवन सभी आयुवर्ग के लोगों के लिए लाभदायक है। इसमें विटामिन सी 30मिग्रा प्रति 100ग्राम एवं कैल्शियम (90 मिग्रा/100ग्राम) के अलावा अन्य खनिज तत्व जैसे मैंगनीशियम, पोटैशियम, विटामिन ए, बी तथा कार्बोहाइड्रेट की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। चूँकि यह उपभोक्ताओं में यह अत्यन्त लोकप्रिय है अतः इसका बाज़ार मूल्य अच्छा मिलता है जिससे किसानों को इसकी खेती के लिए प्रोत्साहन मिलता है। इसकी सब्ज़ी के अलावा इसका सूप तथा स्ट्यू भी अत्यन्त लोकप्रिय व्यंजन हैं। फलियों के पक जाने के बाद इसके काले,  भूरे अथवा सफेद बीजों को भूनकर काॅफ़ी की तरह भी प्रयोग किया जाता है। खांडसारी में गन्ने के रस को साफ करने के लिए भी इसके तनों तथा जड़ों का प्रयोग किया जाता है। इसके औद्योगिक उपयोगों में कागज़ उद्योग तथा रेशा निष्कर्षण उद्योग के लिए कच्चे माल की आपूर्ति भी शामिल हैं।
      भिंडी में अनेक रोगों का प्रकोप होता है जो उपज का एक बड़ा हिस्सा नष्ट कर देते हैं। अनुकूल मौसम में भिंडी के रोग फसल का एक महत्वपूर्ण भाग देखते ही देखते नष्ट हो जाता है जिसे थोड़ी सी सावधानी बरतकर बचाया जा सकता है। अतः फसल में लगने वाले इन रोगों का समुचित प्रबन्धन करके भिंडी की फसल से उपयुक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है। प्रस्तुत लेख में किसान भाइयों के लिए इस महत्वपूर्ण फसल के प्रमुख रोगों के बारे में जानकारी दी गई है जिसका लाभ उठाकर वे इन समस्याओं के प्रबन्धन की उचित तकनीक अपना सकते हैं।
    
      भिंडी के प्रमुख रोग
      भिंडी की फसल को प्रभावित करने वाले प्रमुख रोगों में आर्द्रपतन रोग, फफूँदजनित उकठा रोग, चूर्णिल आसिता अथवा भभूतिया रोग, सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बा रोग तथा पीत शिरा मोजैक रोग आदि शामिल हैं। इनका संक्षिप्त विवरण तथा इनके प्रबन्धन की तकनीक निम्नलिखित पृष्ठों में दी गई हैः

      1. आर्द्रपतन रोगः
       यह प्रमुख रूप से पौधशाला में आने वाला रोग है जो कभी-कभी अत्यन्त प्रचण्ड रूप में आता है तथा पूरी पौधशाला को तहस-नहस कर देता है। आर्द्रपतन दो प्रकार का होता हैः पूर्वोद्भव तथा उद्भवन के पश्चात् (पश्चोद्भवन)। पूर्वोद्भव आर्द्रपतन के लक्षण खेत में दिखाई नहीं देते क्योंकि इसमें बीज का अंकुर भूमि से बाहर आने के पूर्व ही रोगजनक फफूँदों द्वारा विगलित कर दिया जाता है तथा ऐसे बीजों के अंकुर भूमि से बाहर नहीं निकलने पाते। सामान्य किसान इसे बीज की अंकुरण क्षमता तथा गुणवत्ता में कमी मानकर संतोष कर लेता है। उद्भवन के पश्चात् प्रकट होने वाले रोग के लक्षण, जैसा कि नाम से प्रकट है, पौध के पतन के रूप में दिखाई देते हैं। संक्रमित पौध के काॅलर (वह स्थान जहाँ पर पौध भूमि के सम्पर्क में होती है) पर जलसिक्त धब्बे दिखाई देते हैं जो अनुकूल मौसम में तेजी से बढ़ जाते हैं तथा धीरे-धीरे काॅलर को चारों ओर से घेर लेते हैं। इन धब्बों के कारण प्रभावित काॅलर के ऊतक विगलित हो जाते हैं तथा काॅलर पौध के ऊपरी भाग का भार सँभालने में असमर्थ हो जाता है जिसके कारण पूरी पौध भूमि पर गिर जाती है। इस प्रकार पौधशाला में ही पौध के मर जाने के कारण उससे किसी प्रकार के उत्पादन मिलने की संभावना समाप्त हो जाती है तथा दूसरी बार पौध उगाने पर मौसम पिछड़ने तथा खेती की लागत बढ़ने के कारण यह लाभप्रद नहीं रह जाता।
        आर्द्रपतन रोग का कारण कोई एक फफूँद नहीं, बल्कि कई फफूँदों का समूह है जिनमें से किसी एक अथवा एक से अधिक की मौजूदगी रोग का कारण बनती है। इन फफूँदों में पिथियम, राइजोक्टोनिया तथा अन्य कई फफूँदों की प्रजातियाँ शामिल हैं। ये पौधशाला की मिट्टी में मिलने वाले पौध अवषेशों तथा कार्बनिक पदार्थों के ऊपर जीवनयापन करती हैं।
        रोग के प्रकोप को बढ़ाने में मौसम जनित कारणों का बड़ा योगदान है। इनमें ठण्डा तथा बादलयुक्त मौसम, वातावरणीय नमी की अधिकता, मिट्टी में नमी की अधिकता, भारी मिट्टी तथा पौध की अधिक सघनता रोग के उग्र रूप धारण करने में सहायक हैं। रोग की मात्रा मिट्टी में रोगजनक की संख्या तथा रोग के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों के संयोजन पर निर्भर करती है।
        आर्द्रपतन रोग के प्रबन्धन के लिए एक ही स्थान का वर्ष दर वर्ष पौधशाला के लिए प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे रोगजनक फफूँद उस स्थान की मिट्टी में स्थापित हो जाते हैं और रोग का प्रकोप वर्ष दर वर्ष बढ़ता ही जाता है। मिट्टी से रोगजनक फफूँद का उन्मूलन करने के लिए प्रतिवर्ष खेत का सौरीकरण अवश्य करना चाहिए। इसके अलावा गर्मी के मौसम में खेत की मिट्टी पलट हल द्वारा गहरी जुताई भी रोगजनक को सूर्य की गर्मी द्वारा नष्ट करने में सहायक होती है। भिंडी की फसल को दलहनी फसलों के साथ अन्तःफसली खेती के रूप में लेने से भी रोग का प्रकोप कम होता है। पौधशाला तथा खेत से पौध अवशेषों को जितनी जल्दी हो सके, हटाकर नष्ट कर देना चाहिए। ये रोगजनक फफूँदों के लिए आश्रय तथा पोषण का स्रोत होते हैं। पौधशाला तथा खेत में अनावश्यक रूप से नमी को एकत्रित नहीं होने देना चाहिए तथा सिंचाई के लिए सोच समझकर ही निर्णय लेना चाहिए क्योंकि अधिक नमी की दशा में रोग का प्रकोप बहुत तेजी से बढ़ता है। बीज का उपचार जैविक जैवनाशी जैसे ट्राइकोडर्मा विरिडी की 5 से 10 ग्राम मात्रा प्रति किग्रा बीज की दर से करना चाहिए। जैविक विकल्प उपलब्ध न होने पर रासायनिक फफूँदनाशी जैसे थिरम की 2 से 3 ग्राम मात्रा से प्रति किग्रा बीज का उपचार करना चाहिए। इसके अलावा मैंकोजेब के 0.2 प्रतिशत अथवा कार्बेण्डाजिम के 0.1 प्रतिशत घोल से पौधशाला की मिट्टी का सिंचन करना चाहिए। पौधशाला का नियमित निरीक्षण करने से रोग के प्रकट होने के समय की जानकारी मिल जाती है जिससे समय से रोग के प्रबन्धन के समुचित उपाय करके इसे अधिक नुकसान करने से रोका जा सकता है। पौधशाला में गिरी हुई पौध को जितनी जल्दी हो सके जड़ समेत निकालकर उस स्थान की मिट्टी का सिंचन उपरोक्त फफूँदनाशियों से कर देना चाहिए ताकि रोग का प्रसार अगल-बगल की पौध तक न हो सके।

        2. फफूँदजनित उकठा रोगः
        पौधों में उकठा रोग के कई कारण होते हैं जिनमें फफूँद, जीवाणु तथा विषाणुजनित उकठा रोग आते हैं। भिंडी में होने वाला फफूँदजनित उकठा फसल को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाता है। चूँकि उकठाग्रस्त पौधे से कोई भी उत्पादन मिलने की संभावना नहीं रहती, अतः अन्य रोगों की अपेक्षा उकठा में उपज में हानि की मात्रा बढ़ जाती है।
        भिंडी का फफूँदजनित उकठा रोग फ्यूज़ेरियम आॅक्सीस्पोरम की वासइन्फेक्टम प्रजाति द्वारा होता है। रोग के प्रारंभिक लक्षण पौधों में अस्थायी म्लानि के रूप में प्रकट होते हैं। धीरे-धीरे यह म्लानि क्रमिक रूप से बढ़ते हुए स्थायी रूप धारण करने लगती है। प्रभावित पौधों की पत्तियों का रंग पीला पड़ने लगता है, उनकी सामान्य स्फीति समाप्त होने लगती है तथा उनमें मुरझान के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। अन्ततः ऐसे पौधों की मृत्यु हो जाती है। पौधे की मृत्यु के बाद फफूँद पौधे के मूलतन्त्र पर आक्रमण करके उसमें फैल जाता है तथा पौधे के संवहनी ऊतकों को तहस-नहस कर देता है। संवहनी ऊतकों के क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण पौधे में खनिज लवणों तथा जल का समुचित शोषण एवं पौधे के सभी भागों में पोषक तत्वों का समान रूप से वितरण नहीं हो पाता है जिसके कारण पौधा सूखने लगता है। इसके अलावा, पौधे में फफूँद के द्वारा कवकविष उत्पन्न किए जाने के कारण पौधे की कोशिकाओं की सामान्य क्रियाशीलता प्रभावित हो जाती है। यदि पौधे के तने के आधारीय भाग को काटकर देखा जाय तो उसके अन्दर गहरे रंग काष्ठीय भाग दिखाई देता है। पौधे के तने को चीरकर देखने पर संवहनी ऊतक काले अथवा गहरे रंग के दिखाई देते हैं।
        फफूँदजनित उकठा रोग की रोकथाम के लिए एक ही खेत में वर्ष दर वर्ष भिंडी की फसल लेने से परहेज करना चाहिए। इसके अलावा फसल चक्र का पालन भी रोग के रोकथाम में सहायक होता है। रोग के लिए उपलब्ध प्रतिरोधी प्रजातियों जैसे पूसा मखमली आदि का चुनाव करना चाहिए। बीज का उपचार जैविक एजेंट ट्राइकोडर्मा की 5 से 10 ग्राम मात्रा से प्रति किग्रा बीज का उपचार करना चाहिए।  रासायनिक बीज उपचार के लिए कार्बेण्डाजिम 2ग्राम अथवा मैंकोजेब 3 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से करने पर भी रोग के प्रकोप से राहत पाई जा सकती है। रोगी पौधों का उन्मूलन तथा उस स्थान की मिट्टी का उपचार करने से रोग की निरन्तरता में कमी की जा सकती है। इसके लिए रोगग्रस्त पौधे को जड़ समेत उखाड़कर उस स्थान मिट्टी को खेत से निकालकर इससे बने गड्ढे को कार्बेण्डाजिम के 0.15 प्रतिशत अथवा काॅपर आॅक्सीक्लोराइड के 0.25 प्रतिशत घोल से सींच देना चाहिए।

        3. चूर्णिल आसिता अथवा भभूतिया रोगः
        यह रोग एक कवक के द्वारा होता है जिसका नाम एरीसाइफी सिकोरेसिएरम है। रोग के प्रमुख लक्षण पौधों की निचली अथवा पुरानी पत्तियों तथा तनों पर आते हैं। रोग के प्राथमिक लक्षण मुख्य रूप से पौधों की पत्तियों अथवा कभी-कभी तनों पर प्रकट होते हैं। ये लक्षण प्रारम्भ में छोटे, गोलाकार सफेद धब्बों के रूप में होते हैं जो कालान्तर में बढ़ते हुए एक दूसरे से मिल जाते हैं तथा इस प्रकार पत्तियों के बड़े भाग को घेर लेते हैं। पत्तियों की ऊपरी सतह पर इन धब्बों के बीच में टैल्कम पाउडर जैसा चूर्ण दिखाई देता है जो कवक के बीजाणु होते हैं। रोग के लक्षण सामान्यतया नई पत्तियों पर नहीं आते और वे रोग से मुक्त रहतीं हैं। अधिक संक्रमित पत्तियाँ पीली होकर भूरी पड़ जाती हैं तथा अन्ततः सूखकर पौधे से अलग होकर गिर जाती हैं। इस प्रकार, पौधे की लगभग सभी पुरानी या निचली पत्तियाँ पौधे से अलग हो जाती हैं जिसके कारण पौधे की उपज में भारी गिरावट आ जाती है।
        रोग का प्रसार नमी की अधिकता वाले मौसम अथवा पौधों की पत्तियों पर भारी मात्रा में ओस की मौजूदगी में तेजी से होता है।
     चूर्णिल आसिता रोग के प्रबन्धन के लिए रोगरोधी प्रजातियों जैसे रेशमी अथवा आईआईएचआर-4 की खेती करें। खेत के आस-पास से खरपतवारों का उन्मूलन नियमित रूप से करते रहना चाहिए ताकि रोगजनक की उत्तरजीविता के साधन समाप्त किए जा सकें और वर्ष दर वर्ष रोगजनक के निवेशद्रव्य की मात्रा में कमी की जा सके। रोग के रासायनिक प्रबन्धन के लिए घुलनशील गंधक के 0.25 प्रतिशत (2.5ग्राम रसायन प्रति लीटर पानी की दर से) अथवा केराथेन 6 ग्राम रसायन प्रति 10 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर साप्ताहिक अन्तराल से 3-4 छिड़काव करना चाहिए। इन रसायनों के उपलब्ध न होने पर कार्बेण्डाजिम के 0.15 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के समय ध्यान रखना चाहिए कि पूरी पत्ती घोल से भीग जाय।

        4. सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बा रोगः
        भिंडी का यह रोग भी कवकजनित है। भारतवर्ष में इस रोग के रोगकारक फफूँद की दो प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इन दोनों का नाम क्रमश: सर्कोस्पोरा मलायेन्सिस तथा सर्कोस्पोरा एबेलमोशी है। यह रोग सामान्यतया वातावरण में अधिक नमी की मौजूदगी में गंभीर रूप धारण कर लेता है। रोग के लक्षण पत्तियों की निचली सतह पर प्रकट होते हैं। पत्तियों की निचली सतह पर सर्कोस्पोरा मलायेन्सिस द्वारा संक्रमण के फलस्वरूप भूरे रंग वाले अनियमित आकार के धब्बे दिखाई देते हैं जबकि सर्कोस्पोरा एबेलमोशी द्वारा संक्रमण होने पर कज्जली-काली फफूँद की वृद्धि दिखाई देती है। रोग की अधिकता अथवा इसके बढ़ते प्रकोप की स्थिति में प्रभावित पत्तियाँ सूख जाती हैं और अन्ततः पौधे से अलग होकर गिर जाती हैं। पत्तियों की हानि के फलस्वरूप प्रकाश संश्लेषण के अन्तर्गत पौधे का कुल क्षेत्रफल घट जाता है जिससे उसकी समुचित बढ़वार नहीं हो पाती है। रोग का प्रकोप परिपक्व फलियों पर भी होता है जिससे उपज की सीधी हानि होती है। फलियों पर रोग के लक्षण काले धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं।
        रोग के प्रबन्धन के लिए रोगग्रस्त पौधों अथवा उनके प्रभावित भागों को अलग करके खेत से दूर ले जाकर नष्ट कर देना चाहिए। इससे रोग के प्रसार पर अंकुश लगाने में सहायता मिलती है। रोग के रासायनिक प्रबन्धन के लिए बुआई के लगभग एक महीने बाद से प्रारम्भ करके 15 दिनों के अन्तराल पर मैंकोजेब (0.25 प्रतिशत),  कॉपर आॅक्सीक्लोराइड के 0.3प्रतिशत अथवा जिनेब के 0.2प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए। खड़ी फसल में रोग के प्रकट होने पर कार्बेण्डाजिम के 0.1प्रतिशत घोल का छिड़काव पाक्षिक (15 दिनों के) अन्तराल पर करना चाहिए।

        5. पीत शिरा मोजैक रोगः
        पौधों के अन्य मोजैक रोगों की तरह भिंडी का पीत शिरा मोजैक रोग भी एक पादप विषाणु द्वारा होता है, जिसे भिंडी येलो वेन मोजैक वाइरस (बीवाईवीएमवी) के नाम से जाना जाता है। यह विषाणु एकसूत्री डीएनए विषाणुओं वाले समूह के अन्तर्गत जेमिनीविरिडी कुल के वंश बेगामोवाइरस की जाति भिंडी येलो वेन मोजैक वाइरस के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जाता है।  जोस तथा उषा (2003) के अनुसार भिंडी का पीत शिरा मोजैक रोग भिंडी येलो वेन मोजैक वाइरस नामक एक मोनोपार्टाइट बेगामोवाइरस तथा एक छोटे सैटेलाइट डीएनए बीटा कम्पोनेन्ट के संकुल द्वारा उत्पन्न किया जाता है। भिंडी येलो वेन मोजैक वाइरस पौधों को सर्वांगी रूप से संक्रमित कर तो सकता है किन्तु इसके द्वारा केवल हल्का पर्ण कुंचन ही उत्पन्न होता है। इसके विपरीत डीएनए बीटा बेगामोवाइरस के साथ भिंडी के पौधों में लाक्षणिक (typical) पीत शिरा रोग उत्पन्न करता है।
     (जोइस जोस तथा रामकृष्णन उषा, 2003- डिजीज इन इण्डिया इज काज़्ड बाई एसोसिएशन ऑफ़ अ डीएनए बीटा सैटेलाइट विद अ बेगामोवाइरस. वाइरोलाॅजी संस्करण 305; अंक 2 पृष्ठ 310-317)
        रोग पौधे को वृद्धि की किसी भी अवस्था में प्रभावित कर सकता है। वृद्धि की प्रारंभिक अवस्था में रोग का आक्रमण हो जाने पर फसल को भयंकर नुकसान होता है तथा पौधों की बढ़वार एवं उपज,  दोनों ही बुरी तरह प्रभावित होती है। जैसा कि नाम से प्रकट होता है, रोग के प्रारंभिक लक्षण पौधों की पत्तियों पर शिराओं अथवा नसों के रंग बदल जाने के रूप में प्रकट होते हैं। सामान्यतया इन शिराओं का रंग हरा होता है किन्तु रोग के आक्रमण के कारण इनका रंग पीला हो जाता है। शिराओं का पीलापन पूरी पत्ती में एक समान होता है तथा पीली नसों के बीच में हरे रंग के पर्ण ऊतक देखने में विचित्र से लगते हैं। रोग के प्रारंभ में केवल शिराएँ ही पीली होती हैं किन्तु इसकी बाद वाली अवस्थाओं में पूरी पत्ती ही पीली हो जाती है। रोग के तीव्र प्रकोप की अवस्था में पूरी पत्ती हल्के पीले अथवा क्रीमी रंग की हो जाती है तथा पत्तियों में हरेपन का लेशमात्र भी शेष नहीं बचता है। रोगी पौधों में फल कम आते हैं और यदि आते भी हैं तो वे आकार में छोटे, विकृत तथा पीलापन लिए हुए हरे रंग के होते हैं। ये फल रेशेदार तथा कड़े हो जाते हैं और बाजार में बेचने अथवा खाने के योग्य नहीं रह जाते।
        अन्य पादप विषाणु रोगों की तरह भिंडी का पीत शिरा मोजैक रोग भी रोगी पौधे से स्वस्थ पौधे तक हवा, पानी अथवा मिट्टी के द्वारा नहीं फैलता बल्कि इसको संचारित करने के लिए जीवित माध्यम (वेक्टर अथवा संचारी कीट) की आवश्यकता होती है। भिंडी का पीत शिरा मोजैक रोग सफेद मक्खी द्वारा संचारित किया जाता है जो रोगी पौधों से रस चूसने के दौरान विषाणु को ग्रहण कर लेती है तथा स्वस्थ पौधों का रस चूसने के दौरान उनमें विषाणु को संचारित कर देती है।
भिंडी के पीत शिरा मोजैक रोग के प्रबन्धन के लिए खेत के आस-पास से खरपतवारों तथा विषाणु से ग्रसित भिंडी के पौधों को शीघ्रातिशीघ्र सुरक्षित रूप से नष्ट कर देना चाहिए ताकि संचारी कीट (सफेद मक्खी) के द्वारा रोग के संचारण के लिए विषाणु का स्थायी स्रोत आस-पास उपलब्ध न हो सके। रोग के द्वारा होने वानी हानि को कम करने के लिए रोगरोधी अथवा रोग सहिष्णु प्रजातियों जैसे परभणी क्रान्ति, वर्षा उपहार, अर्का अनामिका, अर्का अभय, जनार्दन, सुस्थिरा (सभी हरे फल वाले) आदि की बुआई करनी चाहिए। रोग के प्रबन्धन के लिए रसायनों का प्रयोग केवल संचारी कीट के प्रबन्धन के लिए किया जाता है। रासायनिक प्रबन्धन के लिए फसल की बुआई के समय कार्बोफुरान सक्रिय तत्व की 1 किग्रा मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला देना चाहिए। खड़ी फसल में रोग के प्रबन्धन के लिए इमिडाक्लोप्रिड (0.03 प्रतिशत), डाईमेथोएट (0.1 प्रतिशत), मेटासिस्टाॅक्स (0.2 प्रतिशत), नुवाक्राॅन (0.1 प्रतिशत) में से एक बार में किसी एक रसायन का (रसायनों का मिश्रण कदापि नहीं) 10 दिनों के अन्तराल पर अदल-बदलकर (लगातार एक ही रसायन कदापि नहीं) 4 से 5 छिड़काव करना चाहिए।
        पीत शिरा मोजैक रोग के संचारी कीट सफेद मक्खी का प्रबन्धनः इस कीट के प्रबन्धन के लिए इसकी नियमित निगरानी आवश्यक है। इसके लिए खेत में पीले चिपचिपे पाश अथवा डेल्टा पाश लगा देना चाहिए। रासायनिक प्रबन्धन के लिए बुआई के समय खेत की मिट्टी में कार्बोफुरान (1 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से) मिलाने पर कीट का प्रकोप कुछ कम होता है किन्तु इससे फसल के मित्रजीव भी प्रभावित होते हैं। अतः जहाँ तक हो सके,  इसके प्रयोग से परहेज करना चाहिए। मृदा सौरीकरण द्वारा पौधशाला की मिट्टी का उपचार कर लेने से कीट के प्रकोप में कमी आती है। इसके अलावा पौधशाला को नायलाॅन की जाली द्वारा ढककर रखने से भी कीट का पौध पर आक्रमण नहीं होता, जिससे पौध इसके प्रभाव से सुरक्षित बच निकलती है। इमिडाक्लोप्रिड नामक रसायन (0.2 प्रतिशत) से बीज उपचार करने पर पौध प्रारंभिक दिनों में कीट के प्रभाव से बची रहती है। रोपाई के समय पौध की जड़ों को इसी रसायन के 0.03 प्रतिशत के घोल में डुबो लेने से पौध रोपाई के कुछ समय बाद तक सुरक्षित रहती है। खड़ी फसल पर रोग का प्रकोप होने पर इमिडाक्लोप्रिड 0.03 प्रतिशत, डाइमेथोएट 0.05 प्रतिशत, मेटासिस्टाॅक्स 0.02 प्रतिशत नुवाक्राॅन 0.05 प्रतिशत अथवा डाइमेक्रान (1.5 मिली प्रति लीटर पानी) में से रसायनों को अदल-बदलकर (किन्हीं दो अथवा अधिक रसायनों का मिश्रण कदापि नहीं) 10 दिनों के अन्तराल पर छिड़काव करें।

No comments:

Post a Comment