Friday 25 December 2015

आलू और टमाटर  में पिछेती झुलसा रोग से बचाव के साधन अपनाएँ  

आलू और टमाटर  में पिछेती झुलसा रोग से बचाव के साधन अपनाएँ  
डॉ. जय पी. राय
असिस्टेंट प्रोफेसर एवं फसल सुरक्षा वैज्ञानिक,
काशी हिंदू विश्वविद्यालय-कृषि विज्ञान केन्द्र,
बरकछा, मीरजापुर- २३१ ००१ (उ. प्र.)


पिछले कुछ दिनों से मौसम की अनियमितता को देखते हुए इस सूचना को किसानों के बीच प्रसारित करना आवश्यक हो गया है ताकि वे अपनी आलू तथा टमाटर की फसल में सुरक्षात्मक उपायों को अपनाकर इन महत्त्वपूर्ण फसलों के सबसे बड़े शत्रु-पिछेती झुलसा रोग से होने वाली संभावित हानि से फसल को बचा सकेंI इस रोग का ऐतिहासिक महत्त्व इस तथ्य से जाना जा सकता है कि आलू के १८४० के  यूरोपीय, १८४५ के आयरिश  तथा १८४६ के हाईलैंड अकालों के पीछे इसी रोग का हाथ थाI आयरलैंड में आलू के इस भीषणतम अकाल के कारण हज़ारों लोगों की मृत्यु हो गयी तथा लगभग २० लाख लोगों ने देश छोड़कर अन्य देशों में शरण लियाI इनमें अमेरिका प्रमुख देश था, जहाँ अकाल से पीड़ित अप्रवासी आयरिश लोगों ने शरण ली। इन्हीं में अमेरिका के प्रथम आयरिश कैथलिक राष्ट्रपति जॉन एफ़. केनेडी के पूर्वज भी थे। इस प्रकार अमेरिका के सामाजिक-आर्थिक विकास में आयरिश लोगों की भूमिका की बात करें तो अमेरिका के इतिहास में इस अकाल का विशेष रूप से ऐतिहासिक महत्त्व सहज ही स्पष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, विज्ञान की पौध-रोगों का अध्ययन करने वाली शाखा यानि पादप-रोग विज्ञान का उदय भी इस अकाल के साथ जुड़ा हुआ है। इस रोग से फसल की हानि की बात करें तो वर्ष १९९७ में बिष्ट और उनके साथियों द्वारा प्रस्तुत एक अनुमान के अनुसार भारतवर्ष में पिछेती झुलसा रोग से आलू में लगभग ६५ प्रतिशत की हानि होती है।
आलू के अतिरिक्त इस रोग का प्रकोप टमाटर तथा सोलेनेसी कुल के अन्य पौधों/फसलों पर भी होता है। अनुकूल परिस्थितियों में यह रोग फसल को केवल कुछ घंटों में ही समूल नष्ट करने की क्षमता रखता है। इसके इसी प्रवृत्ति के कारण इससे बचाव के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय लाभकारी सिद्ध नहीं होता क्योंकि एक बार फसल पर रोग आ जाने पर इससे छुटकारा पाना लगभग असम्भव सा हो जाता है। रोग न केवल पौधे के वायवीय भागों, बल्कि भूमिगत भागों, जैसे आलू के कंदों को भी प्रभावित करता है और रोग की तीव्रता अधिक होने पर कंदों में सड़न हो जाती है। यह सड़न मौसम के अनुसार सूखी तथा गीली, दोनों प्रकार की होती है। टमाटर में पौधों के नष्ट हो जाने के साथ-साथ फलों की विशेष हानि होती है जिसका सीधा प्रभाव किसान को होने वाली आमदनी पर पड़ता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि इस रोग के कारण होने वाली हानि मात्रात्मक और गुणात्मक, दोनों प्रकार की होती है
रोग की पहचान :
जो भी आलू और टमाटर की खेती करने वाले किसान हैं, वे पिछेती झुलसा रोग के लक्षणों से भली-भाँति परिचित हैं। इस रोग के लक्षण संक्रमित पौधे की पत्तियों, टहनियों और तनों समेत सभी भागों पर प्रकट होते हैं। इसके प्राथमिक लक्षण जलसिक्त धब्बों के रूप में पौधे के विभिन्न अंगों पर दिखाई देते हैं। ये धब्बे सामान्यतया पत्तियों के किनारों से प्रारम्भ होकर मध्य की ओर बढ़ते जाते हैं। इन धब्बों के किनारों पर पीले रंग का घेरा पाया जाता है। अनुकूल मौसम में धब्बों का आकार तेज़ी से बढ़ता है और शीघ्र ही वे पूरे पौधे को अपनी चपेट में लेते हैं। पौधे पर धब्बों के फैल जाने पर देखने में ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि पौधा झुलस गया हो। इसी कारण रोग को झुलसा नाम दिया जाता है। नम मौसम में पत्तियों की निचली सतह पर पाये जाने वाले धब्बों के ऊपर रोगकारक कवक की वृद्धि दिखाई पड़ती है। पत्तियों के साथ-रोग के लक्षण पौधे के अन्य भागों जैसे तनों, टहनियों, आदि पर भी आते हैं और आलू में तो भूमिगत कंदों पर भी रोग के लक्षण दिखाई देते हैं। कंदों में रोग के कारण सड़न प्रारम्भ हो जाती है और कंद नष्ट हो जाते हैं। मौसम के शुष्क रहने पर कंदों में शुष्क सड़न अथवा ड्राई रॉट तथा मौसम के नम रहने पर कन्दों में नम सड़न अथवा वेट रॉट होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि एक बार कंदों पर रोग आ गया तो मौसम चाहे कोई भी हो, इसके द्वारा होने वाला नुकसान होकर ही रहता है।
रोग का कारण:
पिछेती झुलसा रोग एक कवक अथवा फफूँद के कारण होता है जिसका नाम “फ़ाइटोफ्थोरा इनफेस्टान्स” है। अंग्रेज़ी में फ़ाइटोफ्थोरा का अर्थ “पौधभक्षी" यानि पौधे को खा जाने वाला होता है। अतः इसके नाम से सहज ही इस कवक की घातक क्षमता का पता चलता है। यह कवक कम तापमान और नम मौसम में अत्यंत  तेज़ी से वृद्धि करता है तथा पौधे के सभी भागों में संक्रमण कर सकने में सक्षम होता है। फसल की समाप्ति के पश्चात् यह फफूँद मिट्टी में मौज़ूद संक्रमित पौध-अवशेषों से अपना भोजन प्राप्त करता है और उन्हीं पर जीवित रहता है।
रोग प्रबंधन के उपाय:
देश के ठंडे भागों जैसे हिमालय तथा नीलगिरि की पहाड़ियों पर कवक का जीवन मृदा में पड़े संक्रमित पौध-अवशेषों पर चलता है क्योंकि वहाँ वर्ष  के अधिकांश समय में तापमान कम रहता है और वर्ष में आलू की एक से अधिक फसलें ली जाती हैं जो कि कवक की उत्तरजीविता के लिए आदर्श परिस्थितियाँ हैं। इसके विपरीत भारतवर्ष के मैदानी भागों में इस कवक की  मिट्टी में उत्तरजीविता संदिग्ध है क्योंकि इन प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु में तापमान इतना अधिक होता है जिस पर कि फफूँद का जीवित रह पाना लगभग असंभव होता है। अतः यहाँ पर खेत में रोगजनक फफूँद की आवक का प्रमुख स्रोत संक्रमित कंद होते हैं, जिन्हें शीतगृहों में भंडारित किया जाता है (जहाँ का तापमान कवक को जीवित रहने के लिए अनुकूल होता है)।  इस प्रकार, रोग का प्रबंधन बीज के लिए स्वस्थ कंदों के चुनाव से ही शुरू हो जाता है। बीज के लिए सदैव ऐसी फसल को प्राथमिकता देनी चाहिए जिसमें पिछले वर्षों में रोग का प्रकोप न देखा गया हो।
रोगरोधी प्रजातियों का चुनाव रोग-प्रबंधन की सर्वाधिक उपयुक्त विधि है। इसके लिए कुफरी बादशाह, कुफरी सतलज तथा कुफरी जवाहर मैदानी भागों में खेती के लिए उपयुक्त रोगरोधी प्रजातियाँ हैं। इनमें रोग का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है तथा रोग के प्रबंधन में ख़र्च भी अधिक नहीं आता। साथ ही, रोग द्वारा होने वाली हानि भी सीमित रहती है। अतः रोगरोधी प्रजातियों के प्रयोग से एक साथ कई उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है।
स्वच्छ कृषि रोग तथा कीट प्रबंधन की प्राथमिक आवश्यकता है। किसी भी रोग अथवा शत्रुकीट का प्रकोप तभी अधिक होता है, जबकि खेत साफ़-सफाई का अभाव हो और रोगकारक अथवा शत्रुकीट के पनपने के पर्याप्त साधन मौज़ूद हों। पिछेती झुलसा रोग के प्रबंधन में खेत की साफ़-सफाई का विशेष महत्व है, क्योंकि पौधे के संक्रमित और रोगी अंगों तथा पौध-अवशेषों पर उपस्थित रोगजनक कवक अनुकूल वातावरणीय परिस्थितियों में दिन दूना रात चौगुना बढ़ता है और देखते ही देखते पूरे खेत की फसल को अपने चपेट में ले लेता है। अतः खेत से न केवल खरपतवारों का ही उन्मूलन करें, बल्कि रोगी तथा संक्रमित भागों को भी यथाशीघ्र खेत से बाहर ले जाकर सुरक्षित रूप से नष्ट कर दें। इससे रोग के प्रसार की गति पर प्रभावी अंकुश लगता है। पहाड़ी क्षेत्रों के किसान आमतौर पर संक्रमित पौध अवशेषों को सड़ाकर उन्हें पुनः खेत में कम्पोस्ट की तरह प्रयोग कर लेते हैं। यही गलती आयरलैंड के किसानों ने भी की थी जिसका परिणाम उन्हें  सन् १८४५ के आलू के अकाल के रूप में भुगतना पड़ा। आलू के सड़े-गले तथा संक्रमित कंदों को छाँटकर अलग कर लेना चाहिए तथा उन्हें किसी भी सूरत में खेत तक नहीं पहुँचने देना चाहिए। कंदों की खुदाई से पूर्व आलू के पौधों के वानस्पतिक भागों को ऊपर से काटकर खेत से हटा देना चाहिए। इससे कंदों तक संक्रमण को पहुँचने से रोका जा सकता है। टमाटर में भी नियमित कटाई-छँटाई के द्वारा पौधों की बढ़वार को प्रबंधित रखने से भी रोग के प्रसार की गति को कम करने में सहायता मिलती है। टमाटर के पौधों को सहारा देकर (स्टेकिंग़- staking के द्वारा) भूमि सीधे सम्पर्क से बचाना चाहिए।  रोगकारी कवक का संक्रमण पौधे पर आसानी से नहीं होता।
चूँकि नमी का रोगजनक कवक के विकास में विशिष्ट योगदान होता है, अतः वातावरणीय आर्द्रता के साथ-साथ खेत में पानी का प्रबंधन भी एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। खेत में अतिरिक्त पानी के प्रयोग से सर्वथा परहेज़ करना चाहिए। इससे पौधे के सूक्ष्म-जलवायु (माइक्रोक्लाइमेट) में आर्द्रता के स्तर में वृद्धि होती है और यह रोग की तीव्रता में बढ़ोत्तरी करने वाला साबित होता है। सिंचाई लिए स्प्रिंकलर विधि का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे पौधे की पत्तियाँ भीग जातीं हैं जो कि रोग के विकास के लिए अत्यंत अनुकूल होता है।
फसल के लिए पोषक तत्वों के प्रबंधन का प्रभाव भी रोग के विकास पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। रासायनिक उर्वरकों का असंतुलित मात्रा में प्रयोग तथा नत्रजनयुक्त उर्वरकों का आवश्यकता से अधिक प्रयोग पौधे को रोग के प्रति संवेदी बना देता है और रोग की मात्रा सहज ही बढ़ जाती है। अतः किसान को कई  मोर्चे पर नुकसान होता है-एक तो खेती लागत बढ़ती है, दूसरे अधिक उर्वरक से पौधे की वानस्पतिक बढ़वार भले ही अधिक हो, उसकी उपज में कमी हो जाती है, तथा तीसरे, अधिक उर्वरक नत्रजन के कारण रोग और कीटों के प्रकोप में तेज़ी आती है जिससे उनके द्वारा होने वाली हानि भी अधिक होती है।  इतना ही नहीं, इन फसल सुरक्षा संबंधी समस्याओं के प्रबंधन पर होने वाला खर्च एक अतिरिक्त अपव्यय होता है।
खेत की नियमित निगरानी रोग की समय रहते सूचना के लिए आवश्यक है। रोग के दिखाई देते ही किसानों को अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए ताकि रोग के फैलने की रफ़्तार को कम किया जा सके। हालाँकि अनुकूल वातावरणीय तापमान और आर्द्रता होने पर रोग को रोक पाना लगभग असंभव सी बात होती है, किन्तु समय रहते रोग की उपस्थिति की सूचना कई मायनों में रोग प्रबंधन में कारगर सिद्ध होती है। खेत में रोग की उपस्थिति पौधे के आच्छादन में उसकी निचली पत्तियों रोग के लक्षणों की मौज़ूदगी से पता की जा सकती है।

कवकनाशियों का सुरक्षात्मक छिड़काव सम्भवतः दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी उपाय सिद्ध होता है। चूँकि इस रोग में बचाव के लिए कम ही समय मिल पाता है, अतः तापमान के कम होने, वातावरण में आर्द्रता के स्तर में वृद्धि  होने, रात में ओस पड़ने तथा कुहरा अथवा बदली के कारण पर्याप्त समय तक सूरज की धूप न मिल पाने जैसी परिस्थितियों के निर्माण के समय ही सतर्कता बरतते हुए कवकनाशियों के सुरक्षात्मक छिड़काव का कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिए। इस रोग से बचाव के लिए मेटलैक्सिलयुक्त कवकनाशी का 0.२५ प्रतिशत जलीय घोल एक बार छिड़काव के लिए प्रयोग करना चाहिए। रोग-विकास हेतु  मौसम के अनुकूल बने रहने पर मैन्कोजेब के 0.२५ प्रतिशत जलीय घोल का साप्ताहिक अंतराल पर छिड़काव रोग से सुरक्षा प्रदान करने में सहायक सिद्ध होता है।

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